यशस्वी जायसवाल तब सिर्फ़ ग्यारह साल का था. रात में ग्राउंडस्मेन के साथ मुसलिम युनाइटेड क्लब के टेंट में मुंबई के आज़ाद मैदान में सोता था. इससे पहले उसे एक डेयरी से निकाला जा चुका था. उत्तरप्रदेश से मुंबई आया यशस्वी ये सब इसलिए कर पा रहा था, क्योंकि उसकी आंखों में एक सपना था, क्रिकेट खेलने का.
अब इस बात को 6 साल हो चुके हैं. यशस्वी 17 साल का हो चुका है और वह एक मध्यक्रम का धाकड़ बल्लेबाज़ है. वो जल्द ही श्रीलंका टूर के लिए भारत की अंडर-19 टीम के साथ जुड़ने वाला है. मुंबई के अंडर-19 कोच सतीश सामंत का कहना है कि जायसवाल का पास खेल की असाधारण समझ है और उसकी एकाग्रता अचूक है.
उत्तरप्रदेश के भदोही में यशस्वी के पिता एक छोटी दुकान चलाते हैं. दो भाईयों में छोटे यशस्वी का सपना क्रिकेट खेलने का था. इसके लिए वह मुंबई चला गया. पिता जी ने नहीं रोका क्योंकि उनके लिए परिवार का पेट पालना मुश्किल हो रहा था. मुंबई में वो अपने अंकल संतोष को पास रहने वाला था, जिनका घर वर्ली में था. हालांकि उनके घर में भी किसी अतिरिक्त महमान के लिए जगह नहीं थी. इसलिए उन्होंने मुसलिम युनइटेड क्लब के मालिक से कह कर वहां एक टेंट में रखवा दिया.
जायसवाल बताते हैं कि ये तब की घटना है, जब उसे कलबादेवी में एक डेयरी से निकाला गया था. दिनभर क्रिकेट खेलने के बाद इतनी ताकत नहीं बचती थी कि वो दुकान में काम कर सके इसलिए वो दुकान में जा कर सो जाया करता था. एक दिन उसके सामान को दुकान के बाहर फेंक दिया गया.
तीन सालों तक टेंट ही उसका घर बना रहा. वो अपनी कहानी को घरवालों तक नहीं पहुंचने देना चाहता था. कभी-कभी घर से कुछ पैसे आ जाते थे, लेकिन उनसे मुंबई में गुज़ारा चल पाना मुश्किल था. रामलीला के दौरान वो आज़ाद मैदान में पानी-पूरी बेचता था ताकि कुछ पैसे आ जाएं. फिर भी कुछ ऐसे दिन आ ही जाते थे जब उसे ख़ाली पेट सोना पड़ता था.
जायसवाल के शब्दों में- रामलीला के दौरान, मैंने बहुत कुछ सीखा है. मैं प्राथना करता था कि मेरे साथी खिलाड़ी वहां पानीपूरी खाने न आ जाएं. जब वो आ जाते थे, तो मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस होती थी. जब उसके साथी खिलाड़ी यशस्वी को पानीपूरी बेचने के लिए चिढ़ाते थे, तब वो उनपर गुस्सा नहीं होता था. क्योंकि उन्हें कभी टेंट में रहना नहीं पड़ा, कभी पानीपूरी बेचनी नहीं पड़ी और कभी खाली पेट नहीं सोना पड़ा था.
वो पैसे कमाने के लिए बहुत मेहनत करता था. वो बड़े खिलाड़ियों के साथ खेलकर और रन बना कर सप्ताह के 200-300 कमा लेता था.
सब बातें याद करते हुए जायसवाल ने एक इंटरव्यू में कहा, ‘मैं हमेशा देखता था कि मेरे उम्र के बच्चे अपने साथ खाना लाते थे या उनके घरवाले बड़े डब्बे अपने साथ लेकर आते थे. और मेरे लिए- खाना खुद बनाओ, खुद खाओ. कोई ब्रेकफ़ास्ट नहीं. दूसरों को कहना पड़ता था कि मुझे भी खिला दें’.
लंच और डिनर टेंट में ही हो जाता था और मेरा काम रोटी बनाने का था. हर रात कैंडल लाईट डिनर हुआ करती थी क्योंकि टेंट में बिजली नहीं आती थी.
यशस्वी यशस्वी ने बीते दिनों को याद करते हुए कहा, ‘दिन तो कैसे भी कट जाते थे, काम कर के या क्रिकेट खेल कर. रात में कभी कभी रोना आता था, परिवार की याद आती थी. ऐसा नहीं है कि मैं घर की याद मैं रोता था. मैदान में कोई शौचालय नहीं था और जो नज़दीक में फ़ैशन स्ट्रीट के पास शौचालय था, वो रात में बंद हो जाता था.
अंडर-19 टीम के लिए चुने जाने से पहले आज़ाद मैदान में ये बातें होने लगी कि एक खिलाड़ी को मदद की ज़रूरत है. चीज़ें थोड़ी बहुत सुधरीं जब एक स्थानीय कोच ज्वाला सिंह मदद के लिए आगे आए.
ज्वाला भी उत्तरप्रदेश से पलायन कर मुंबई आए थे. ज्वाला के शब्दो में, ‘जब मैं उत्तरप्रदेश से यहां आया था तब मेरे पास भी रहने के लिए घर नहीं था. न कोई गॉडफ़ादर न कोई मार्गदर्शक. मैंने उसे 12 साल की उम्र में ‘A’ डिविज़न के बॉलर्स को बहुत आसानी से खेलते हुए देखा है. पिछले पांच सालों में उसने 49 शतक मारे हैं.’
बड़े गेम के प्रेशर के बारे में जब जायसवाल से पूछा गया तब उसका जवाब था, ‘आप खेल के मेंटल प्रेशर की बात कर रहे हैं? मैंने सालों तक रोज़ अपनी ज़िंदगी में प्रेशर झेला है. इसने मुझे मज़बूत बनाया है. रन बनाना मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं है. मैं जानता हूं वो मैं कर लूंगा. मेरे लिए ज़रूरी है कि क्या मुझे अगले वक़्त का खाना मिलेगा या नहीं.’