लौंडा नाच… पूर्वी भारत का एक प्रसिद्ध लोक नृत्य. इस नृत्य के बारे में लिखित जानकारी कम ही उपलब्ध है. लेकिन इस लोक नृत्य का इतिहास सैंकड़ों साल पुराना है.

92 वर्षीय रामचंद्र माझी 80 साल से इस लोक नृत्य का प्रदर्शन कर रहे हैं. ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि वो इस लोक नृत्य के ‘लेजेंड्री आर्टिस्ट’ हैं. रामचंद्र के हाथों की झुर्रियां इस बात का सबूत हैं कि इस नृत्य कला को ही उन्होंने अपना सारा जीवन दे दिया.

अपनी आंखों पर सुरमा लगाते हुए रामचंद्र कहते हैं,

मैं अपना श्रृंगार खुद करता हूं. पिछले 80 सालों से मैं अपना श्रृंगार कर रहा हूं.

स्टेज पर स्त्री के रूप में जाना रामचंद्र के लिए नई बात नहीं है. बिहार के छपरा ज़िले के निवासी रामचंद्र 12 साल की उम्र से ही स्त्री के रूप में स्टेज पर परफ़ॉर्म कर रहे हैं. उनके साज-श्रृंगार का सामान उनके साथ ही, एक जगह से दूसरे जगह जाता है. ये सामान एक ट्रंक में रखा रहता है, जिसे वो पिछले 50 सालों से अपने सह-कलाकार, लखिचंद मांझी के साथ शेयर करते हैं. ये दोनों सर्दियों के कुछ महीनों के लिए साथ आते हैं. रामचंद्र की मंडली ने देश के लगभग हर हिस्से में परफ़ॉर्मेंस दी है.

रामचंद्र कहते हैं कि उन्होंने सुरैया(मशहूर गायिका) और हेलेन(अभिनेत्री) के सामने भी अपनी कला का प्रदर्शन किया है.

अपनी अदाकारी के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा,

अगर दो-चार पुरुष छत से या कुंएं में न गिरे तो हमें लगता है कि बीते रात नाच अच्छा नहीं था.

लखिचंद बताते हैं,

ये नाच ही मेरी ज़िन्दगी है. ये काम की तरह ही है. मैं काम पर जाता हूं, स्त्री का रूप लेता हूं और फिर वापस घर आ जाता हूं.

ये दोनों आर्टिस्ट और इनकी मंडली बिदेसिया परफ़ॉर्म कर रही हो जो मशहूर लेखक, भिखारी ठाकुर द्वारा लिखा गया है. पिछले कुछ दशकों में भिखारी ठाकुर की लेखनी को राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया है. प्रवासन, दहेज प्रथा, महिलाओं की स्थिति जैसे विषयों पर इनके नाटकों का कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है.

शोधार्थियों का मानना है कि समय के साथ इस नाच में भी काफ़ी परिवर्तन आया है. सामान्य शब्दों में कहा जाए तो इस नाच का Westernisation हो गया है.

जैनेंद्र कुमार दोस्त जो खुद इस नृत्य के परफ़ॉर्मर और जेएनयू में रिसर्चर हैं का वक्तव्य कुछ यूं है,

लौंडा… एक गाली है. ऊंची जातिवालों को ये शब्द पसंद नहीं, न ही आप इसे पब्लिक में बोल सकते हैं. जब आप राष्ट्रीय स्तर पर इसका मंचन करते हैं, तो इसके गानों के बोल बदल दिए जाते हैं… प्रदर्शन का समय भी कम कर दिया जाता है.

बिहार में लौंडा नाच 19वीं शताब्दी में लोकप्रिय हुआ, जब महिलाओं को स्टेज पर परफॉर्म करने की अनुमति नहीं थी. किसी भी स्त्री का स्टेज पर जाकर परफ़ॉर्मेंस देना लज्जाजनक माना जाता है. ऐसे समय में छोटी जाति के पुरुष स्त्रियों का रूप धारण करके स्टेज पर प्रदर्शन करने लगें.

उस समय राजा, ज़मीनदार और अन्य अमीर लोग ‘बाईजी’ के बंगलों पर जाकर अपना मनोरंजन करते थे, तब गरीबों के मनोरंजन का एकमात्र सहारा था ‘लौंडा नाच’

स्त्रियों के रूप में स्टेज पर डांस करते हुए भी रामचंद्र और लखिचंद शादीशुदा हैं और एक आम ज़िन्दगी जीते हैं. उनकी बीवीयां भी उनके इस प्रोफ़ेशन के बारे में जानती हैं, पर इससे उनकी ज़िन्दगियों में कोई परेशानियां नहीं हैं.

रामचंद्र रात को भले ही स्त्रियों की तरह ऐक्ट करें पर सुबह तक वो एक दादाजी बन जाते हैं.

लौंडा नाच, कमज़ोर या छोटी जाति के लोग ही करते हैं. शायद इसलिये इसे राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार नहीं किया गया.

जैनेंद्र का कहना है,

बिहार के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर की भी परफ़ॉर्मेंस की कोई रिकॉर्डिंग नहीं है. लौंडा नाच के जितने भी नए शोधार्थी हैं, उन्होंने शायद ही कभी ये नाच देखा हो. इस डांस फ़ॉर्म के ज़्यादातर परफ़ॉर्मर नीची जाति के लोग ही हुआ करते थे. अनपढ़ लोग क्या इतिहास लिखेंगे?

19 वर्षीय एक परफ़ॉर्मर ने बताया,

इस फ़ॉर्म का समाज में कोई सम्मान नहीं है. मेरे गुरू भी अपने बच्चों को क्लासिकल डांस सिखा रहे हैं.

इस तरह के नाच में सिर्फ़ सम्मान का ख़तरा ही नहीं है, लोगों को दुर्व्यवहार भी झेलना पड़ता है.

रोशमी दास एक ट्रांसजेंडर ऐक्टिविस्ट हैं. 2006 में वे लौंडा नाच करने गईं लेकिन परफ़ॉर्मेंस से पहले ही वहां से भाग गई. दर्शकों के उत्साह और डबल मीनिंग गानों ने उनके अंदर डर पैदा कर दिया था कि उनके साथ कुछ ग़लत हो सकता है.

रोशमी के पिता की मृत्यु के बाद उन्हें वापस इस पेशे में आना पड़ा. उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश का टूर किया, जहां वे भोजपुरी और हिन्दी गानों पर नाचती.

रोशमी ने बताया,

एक बार मुझे गांववाले उठाकर ले गए और एक कमरे में मेरा यौन शोषण किया गया. जान बचाने के लिए मैं रातभर खेतों में छिपी रही.

जो औरतें या ट्रांसजेंडर इस तरह के परफ़ॉर्मेंस देती हैं उनको Abuse झेलना ही पड़ता है.

ऐसे नृत्य का मंचन करने वाले काफ़ी गरीब होते हैं. इनमें से कुछ तो हाई-स्कूल तक पढ़े होते हैं लेकिन गरीबी के कारण इस जगह काम करने पर मजबूर होते हैं. कम पैसे में काम करने पर मजबूर ऐसे लोगों को रातभर जगाकर रखने के लिए इंजेक्शन दिया जाता है. बैंड मेंबर ही कई बार इनका बलात्कार करते हैं. लेकिन नाच ही कई ट्रांसजेंडरों के जीवनयापन का तरीका है.

रामचंद्र बताते हैं कि उन्होंने इसी नाच की कमाई से अपने तीन भाईयों, 2 बेटों और 3 बेटियों की शादी की. अपने छोटे भाई की शादी में दर्शकों के अनुरोध पर उन्होंने 2 रातों तक लगातार परफ़ॉर्म किया.

जब उनसे पूछा गया कि क्या कभी लौंडा बनने के लिए उन्हें अपमानित होना पड़ा, इस पर उन्होंने कुछ नहीं कहा. लेकिन उनकी मंडली के लोगों का कहना है कि उन्हें कई बार अपशब्द सुनने पड़े हैं. रामचंद्र कहते हैं,

मेरी ज़िन्दगी लगभग ख़त्म हो चली है. मैंने इस ज़िन्दगी में जो भी जाना है, वो है ये नाच. मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी इस नाच को ही दे दी. मैं इसे सैल्यूट करता हूं. मैं खुश है कि मैंने इसके अलावा कुछ नहीं किया.

Source- HT