भारत की माटी पर कई वीरों ने जन्म लिया. न जाने कितनों ने देश का भविष्य बनाने के लिए अपनी पूरी ज़िन्दगी क़ुर्बान कर दी, लेकिन ये क़ुर्बानियां सिर्फ़ भगत सिंह, लाला लाजपत राय, ख़ुदीराम बोस ने ही नहीं दी. देश की कई वीरांगनाओं ने भी हमारा आज संवारने के लिए अपना वर्तमान क़ुर्बान कर दिया.
ये लेख है कुछ वीरांगनाओं के नाम, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए लड़ाईंयां लड़ीं-
1. बीना दास
बंगाल की धरती पर 1911 में इस वीरांगना ने जन्म लिया. बीना ‘छात्री संघ’ की सदस्य थीं. 6 फरवरी, 1932 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के Convocation Hall में उन्होंने बंगाल के गवर्नर, Stanley Jackson की हत्या का प्रयास किया. साज़िश को अंजाम तक पहुंचाने के लिए उन्हें एक अन्य स्वतंत्रता सेनानी, कमला दास गुप्ता द्वारा रिवॉल्वर दी गई थी. बीना ने गवर्नर पर 5 गोलियां दागीं लेकिन गवर्नर बच गया.
बीना को इस षड्यंत्र के लिए 9 साल के कारावास की सज़ा सुनाई गई, लेकिन सज़ा ख़त्म होने से पहले ही उन्हें 1939 में रिहा कर दिया गया. रिहाई के बाद बीना कांग्रेस से जुड़ गईं. ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और इस अपराध के लिए भी उन्हें 1942-45 तक कारावास की सज़ा मिली.
बीना ने ऋषिकेश में गुमनामी में जीवन के आख़िरी दिन बिताए. 26 दिसंबर, 1986 को क्षत-विक्षत हालत में उनका शव सड़क किनारे पाया गया, जिसकी पहचान करने में पुलिस को 1 महीने लग गए. एक स्वतंत्रता सेनानी की ऐसी मृत्यु अकल्पनीय है.
2. अक्कम्मा चेरियन
‘त्रावणकोर की झांसी’ उर्फ़ अक्कम्मा चेरियन
14 फरवरी, 1909 को त्रावणकोर के नसरानी परिवार में अक्कम्मा का जन्म हुआ. आज़ादी की लड़ाई से वे 1938 में त्रावणकोर स्टेट कांग्रेस की स्थापना के बाद जुड़ीं. त्रावणकोर की जनता को काबू में लाने के लिए वहां के दीवान, सी.पी. रामास्वामी अय्यर ने स्टेट कांग्रेस पर बैन लगा दिया.
इसके बाद एक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गया, केरल में ऐसा पहली बार हो रहा था. स्टेट कांग्रेस के कई लीडर और प्रेसिडेंट जेल में डाल दिए गए. एक के बाद एक जो भी प्रेसिडेंट बनता, उसे जेल में डाल दिया जाता. 11वें प्रेसिडेंट ने अक्कम्मा को अपने बाद प्रेसिडेंट नियुक्त किया.
अकम्मा ने Thamapanoor से महाराज चिथीरा थिरुनल के Kowdiar स्थित महल तक रैली निकाली. राज्य कांग्रेस पर से बैन हटाने के लिए रैली निकाली गई थी. सैंकड़ों नहीं हज़ारों लोग खादी की टोपी पहनकर और झंडे लेकर इस रैली में शामिल हुए थे.
उन्होंने ‘देससेविका संघ’ की स्थापना की और कांग्रेसी गतिविधियों में शामिल होने लगी. भारत की आज़ादी के बाद वे निर्विरोध त्रावणकोर से विधान सभा की सदस्य चुनी गईं.
3. मीठूबेन पेटिट
मुंबई के एक धनी पारसी परवार में मीठूबेन का जन्म हुआ. धनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद वो गांधी जी की अनुयायी बन गईं. उनकी एक रिश्तेदार ‘राष्ट्रीय स्त्री सभा’ की सेक्रेट्री थीं. मीठूबेन ने दांडी मार्च में भी हिस्सा लिया था. कस्तूरबा गांधी, सरोजनी नायडू के अलावा मीठूबेन ने दांडी मार्च और सविनय अवज्ञा आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी.
1928 में उन्होंने बरडोली सत्याग्रह में भी हिस्सा लिया.
बाद में उन्होंने मारोली में, हरिजनों, आदिवासियों के लिए ‘कस्तूरबा वनत शाला’ की स्थापना की.
4. प्रीतिलता वादेदार
प्रीतिलता बंगाल की क्रांतिकारी थीं. ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ हथियार उठाने वाली वो बंगाल की पहली महिला थीं. जलालाबाद एनकाउंटर का बदला लेने के लिए क्रांतिकारियों के एक दल ने एक योजना बनाई थी. योजना थी, पहाड़टाली यूरोपियन क्लब पर हमला करना. इस क्लब के बाहर एक साइनबोर्ड लगा था, ‘भारतीय और कुत्तों का प्रवेश निषेध है.’ 21 वर्षीय प्रीतिलता को इस साज़िश को अंजाम देने वाले ग्रुप का लीडर चुना गया.
एक पंजाबी पुरुष की तरह भेष बनाकर प्रीतिलता ने हमले की अगुवाई की. इस क्लब को क्रांतिकारियों ने आग लगा दी. अंग्रेज़ों ने भी जवाबी हमला किया, जिसमें प्रीतिलता बुरी तरह घायल हो गईं.
अंग्रेज़ों का बंदी बनना उन्हें स्वीकार नहीं था. साइनाइड खाकर उन्होंने आत्महत्या कर ली.
5. कल्पना दत्त
चटगांव में 1913 में जन्मी थीं कल्पना. मैट्रीकुलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वो कोलकाता आ गईं और यहां आकर ‘छात्री संघ’ की सदस्या बन गईं. बीना दास और प्रीतिलता वादेदार भी इस संघ की सदस्या थीं.
क्रांतिकारी सूर्य सेन ने Indian Republican Army की स्थापना की थी. इसी की Chattagram Branch से कल्पना भी जुड़ गईं. चटगांव के यूरोपियन क्लब हमले में कलपना भी शामिल थीं. हमले के एक हफ़्तेभर बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया, पर उन्हें बेल मिल गई थी.
कल्पना ने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां जारी रखी. 1943 में बंगाल में पड़े भयंकर सूखे में उन्होंने रिलीफ़ वर्कर के रूप में काम किया. आज़ादी के बाद वे Indian Statistical Institute से जुड़ी और वहीं काम किया. 8 फरवरी 1995 को उनका देहांत हो गया.
ये थीं आज़ादी की लड़ाई में जी-जान लगाने वाली कुछ वीरांगनाओं की कहानी.