काले कोट और सफ़ेद साड़ी में इंसाफ़ के लिए अदालतों में लड़ती महिलाओं को देखते हैं तो सम्मान से सिर झुक जाता है.


चाहे वो निर्भया(वक़ील- सीमा समृद्धि) को इंसाफ़ दिलाना हो या 377 को हटाने (वक़ील- मेनका गुरुस्वामी, अरुंधती काटजू) की लड़ाई हो, ऐसे कई अहम मुद्दों पर महिला वक़ीलों ने लंबी लड़ाईयां लड़ी और जीती हैं. आज महिलाएं अपने हक़ की बात कर पा रही हैं इसका श्रेय कॉर्नेलिया सोराबजी को भी जाता है. वे भारत की पहली महिला वक़ील थीं.  

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कौन हैं कॉर्नेलिया सोराबजी? 


कॉर्नेलिया का जन्म, 15 नवंबर, 1866 को महाराष्ट्र के नासिक में हुआ. रेवेरेंड सोराबजी कारसेदजी और फ़्रैंसिना फ़ोर्ड के 9 बच्चों में से एक थीं कॉर्नेलिया. कोर्नेलिया कि मां फ़्रैन्सिना, महिला शिक्षा पर बहुत ज़ोर देती थीं और उन्होंने लड़कियों के कई स्कूल खोले थे. स्थानीय महिलाएं, ज़मीन-जायदाद और प्रॉपर्टी के मामले में उनसे सलाह लेती थीं. इन सब का कॉर्नेलिया पर ख़ासा प्रभाव पड़ा. 

बॉम्बे यूनिवर्सिटी से पढ़ने वाली पहली महिला 


कोर्नेलिया को उनके पिता, घर पर ही पढ़ाते थे. एक रिपोर्ट के अनुसार, कोर्नेलिया के पिता ने अपनी पहली 2 बेटियों का बॉम्बे यूनिवर्सिटी में दाख़िला करवाने के लिए बहुत मेहनत की पर अधिकारी टस से मस नहीं हुए. यूनिवर्सिटी ने उन्हें दलील दी कि किसी महिला को यूनिवर्सिटी में कभी प्रवेश नहीं मिला है. सभी बहनों में बॉम्बे यूनिवर्सिटी में प्रवेश पाने वाली कॉर्नेलिया थीं. इसी के साथ बॉम्बे यूनिवर्सिटी से मैट्रिक करने वाली पहली महिला भी बन गईं कॉर्नेलिया. 

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ग्रैजुएशन में किया टॉप फिर भी नहीं मिली स्कॉलरशिप 


एक रिपोर्ट के अनुसार, कॉर्नेलिया को लड़के बहुत परेशान करते थे, जैसे क्लासरूम का दरवाज़ा उनके मुंह पर बंद करना आदि, पर कॉर्नेलिया ने हार नहीं मानी. सभी बातें बनाने वालों को उन्होंने अपने काम से जवाब दिया. उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य से ग्रैजुएशन किया और अपनी क्लास में पहले रैंक पर रहीं. 

क्लास में टॉप करने के बाद कॉर्नेलिया को ये लग रहा था कि इंग्लैंड में आगे कि पढ़ाई के लिए उन्हें स्कॉलरशिप मिलेगी. कॉर्नेलिया के ये सपने चूर-चूर हो गये. उन्हें स्कॉलरशिप नहीं मिली क्योंकि वो एक महिला थीं. 

‘House of Commons’ में भी उनके स्कॉलरशिप का विषय Sir John Kennaway द्वारा उछाला गया. 

उस दौर के जाने-माने व्यक्तियों ने ऑक्सफ़ॉर्ड जाने में मदद 


कॉर्नेलिया हार गई थीं, एक सरकार के हाथों, समाज के तथाकथित लोगों के हाथों. हारी हुई कॉर्नेलिया को उम्मीद मिलीं, Mary Hobhouse, Adelaide Manning, Florence Nightingale, Sir William Wedderburn और कई अन्य लोगों द्वारा. इन लोगों ने कॉर्नेलिया की ऑक्सफ़ोर्ड में पढ़ाई के लिए पैसे इकट्ठा किये. 

लॉ स्कूल के दरवाज़े ‘एक महिला’ के लिए थे बंद 


एक बार फिर कॉर्नेलिया को याद दिलाया गया कि वो एक महिला हैं. कॉर्नेलिया से कहा गया कि लॉ उनके बस की नहीं और वो बस अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने की क़ाबिलियत रखती हैं. 

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अंग्रेज़ों ने अंग्रेज़ों से कॉर्नेलिया के लिए की अपील 


दार्शनिक Benjamin Jowett के आने के बाद कॉर्नेलिया के लिए हालात बदले. Benjamin ने कॉर्नेलिया की वक़ालत की पढ़ाई के लिए एक स्पेशल लॉ कोर्स बनवाया. Benjamin समेत कई अंग्रेज़ों ने कॉर्नेलिया को Congregational Decree से Somerville College, Oxford में Bachelor of Civil Laws Exam में बैठने की अनुमति देने की अपील की थी. 1892 में ये परीक्षा देने वाली कॉर्नेलिया पहली महिला बनीं. 

ये एक पोस्ट-ग्रेजुएट डिग्री थी, जो लंदन के बेरिस्टर और अंडरग्रेजुएट देते थे वो भी 5 साल की ट्रेनिंग के बाद. कॉर्नेलिया इसे 2 साल की ट्रेनिंग में ही पास करने की कोशिश कर रही थीं. एक्ज़ामिनर ने कॉर्नेलिया की परीक्षा लेने से इंकार कर दिया और बाद में उन्हें थर्ड क्लास दिया. परीक्षा पास करने के बावजूद ये नियम था कि किसी महिला को अगले 30 सालों में कोई महिला अपनी डिग्री नहीं ले सकती. 

काम करते-करते बैचलर ऑफ़ लॉ किया पास 


कॉर्नेलिया लंदन के Lee & Pemberton Solicitor फ़र्म में काम करने लगीं. Lord Hobhouse ने कॉर्नेलिया के लिए Lincoln’s Inn में स्थित लाइब्रेरी में पढ़ाई करने की स्पेशल परमीशन ली, इससे पहले कोई महिला इस लाइब्रेरी में नहीं पढ़ती थी. 

Solicitor के यहां काम करते-करते ही उन्होंने बैचलर ऑफ़ लॉ पास कर लिया. इसके बाद उन्होंने स्वदेश लौटकर महिलाओं और बच्चों के लिए काम करने का निर्णय लिया. 

1894 में कॉर्नेलिया देश लौटीं और तब के चीफ़ जस्टिस ने महिलाओं को वक़ालत में नौकरी न देने का नियम बना दिया. 

अंडर-ग्रैजुएशन में लिया प्रवेश 


ऑक्सफ़ॉर्ड से पोस्ट-ग्रैजुएशन के बावजूद कॉर्नेलिया ने बॉम्बे यूनिवर्सिटी में अंडर-ग्रैजुएशन में प्रवेश लिया. उनके आस-पास के सभी लोग उनकी कोशिशों को नाक़ामयाब करने में लगे हुए थे और इसलिए उन्हें फ़ेल कर दिया गया. 

ब्रिटिश राज में नौकरी नहीं मिली और राजा-महाराजओं ने मज़ाक उड़ाया 


अंग्रेज़ सरकार ने हर वो काम किया, हर वो नियम बनाया जिससे कॉ्र्नेलिया वक़ालत से दूर रहें. राजा-महाराजा उन्हें राजघराने का वक़ील बनने का न्यौता दिया पर वो उन्हें बक़वास केस देते. 

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अपना रास्ता ख़ुद बनाया 


जब हर किसी ने कॉर्नेलिया को नकार दिया तब उन्होंने अपना रास्ता ख़ुद बनाया. उस समय भारत की महिलाएं चार-दीवारी में और पर्दे में रहती थीं. उन्हें अपने पति के अलावा किसी से बात करने की आज्ञा नहीं थी. विधवाओं, बाल विधवाओं की हालत और ख़राब थी. 

जब बात ज़मीन-जायदाद की होती तो भी ये महिलाएं और बच्चे अक़सर ख़ुद को अकेला पातीं क्योंकि सारे वक़ील पुरुष होते. कॉर्नेलिया ऐसी महिलाओं की वक़ील बनीं. विधवाओं की संपत्ति के लिए अक़सर उनके बच्चों को मारकर जायदाद हथिया ली जाती. कॉर्नेलिया ने सिर्फ़ उनके अधिकार सुरक्षित किए पर कई बार तो वो केस के पैसे भी नहीं लेती थीं. 

कॉर्नेलिया की कोशिशें 1924 में रंग लाईं जब भारत में महिलाओं के वक़ालत शिक्षा के दरवाज़े खोल दिए गए.