बॉलीवुड में महिलाओं के लिए रोल तो हैं, लेकिन किस प्रकार के रोल हैं इसे उंगलियों पर गिना जा सकता है. ज़्यादातर फ़िल्मों में या तो उन्हें ‘अबला नारी’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है या फिर ‘Eye Candy’ के रूप में.

फ़िल्मों में महिलाओं की भूमिका को लेकर एक अहम स्टडी की गयी है, जिसके लिए 1970 से 2017 के बीच आई फ़िल्मों के Wikipedia से जानकारी जुटाई गयी है. इस अध्ययन के लिए 2008 से 2017 के बीच आये 880 फ़िल्म ट्रेलर्स का भी आंकलन किया गया है.

अगर गानों की बात की जाये, तो उनमें भी कई ऐसे दृश्य होते हैं, जिन्हें देख कर लोग लड़की का पीछा करने, उसे छेड़ने जैसे कामों को आम समझने लगते हैं. ये कहना ग़लत नहीं होगा कि फ़िल्मों में महिलाओं को शो-पीस की तरह इस्तेमाल किया जाता है.

अगर आप इस बात से सहमत नहीं हैं, तो एक नज़र इन आंकड़ों पर डालिए. 4,000 बॉलीवुड फ़िल्मों की स्टडी के बाद बनाये गए ये आंकड़े असलियत खुद बता रहे हैं.

स्क्रीन टाइम

विकिपीडिया पर, पिछले पचास सालों में आई फ़िल्मों के Plot में औसतन 30 बार पुरुषों का ज़िक्र हुआ है और 15 बार महिलाओं का. यानि, एक्ट्रेस के रोल को एक्टर के रोल से कम महत्व दिया जाता है.

Stereotypes

महिला किरदारों के बारे में बताते हुए ज़्यादातर ‘सुन्दर’ और ‘आकर्षक’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, वहीं मर्दों के लिए लिए ‘अमीर’, ‘ताकतवर’ और ‘सफ़ल’ जैसे शब्द इस्तेमाल किये गए.

फ़िल्मों में आदमियों का परिचय देते हुए उनके व्यवसाय के बारे में बताया जाता है, जैसे ‘प्रसिद्ध गायक’, ‘इमानदार अफ़सर’. महिलाओं का परिचय बहन, बेटी, पत्नी के रूप में दिया जाता है.

व्यवसाय

मर्दों को ज़्यादातर फिल्मों में ऊंचे पदों पर कार्यरत दिखाया जाता है. फिल्मों में 32% मर्द डॉक्टर के किरदार में दिखाए जाते हैं. केवल 3% किरदारों में ही महिलाओं को डॉक्टर दिखाया जाता है. 59.5% रोल शिक्षिका के होते हैं और 25.4% सेक्रेटरी के.

शो पीस

कई फ़िल्मों में दर्शकों को सिनेमा हॉल तक लाने के लिए महिलाओं को शो पीस की तरह इस्तेमाल किया जाता है, उन पर आइटम नंबर फ़िल्माये जाते हैं. फ़िल्म के प्लॉट में 80% तो मर्दों का ही ज़िक्र होता है, लेकिन 50% मूवी पोस्टर्स में महिलाएं दिखाई देती हैं.

पर्दे के पीछे

ये भेद-भाव आपको पर्दे के पीछे भी दिख जायेगा. फ़िल्मों में गायिकाएं, गायकों से कम गाने गाती हैं. कई फ़ीमेल सिंगर्स इस बारे में बात भी कर चुकी हैं.

आ रहा है बदलाव

हालांकि, अब फ़िल्मों में कुछ सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं. अब महिलाओं के ऊपर भी फ़िल्में बनने लगी हैं. ‘कहानी’ और ‘नीरजा’ जैसी फ़िल्मों में मजबूत महिला किरदार दिखाए गए हैं. पिछले साल आई लगभग 30 फिल्मों में Stereotypes को तोड़ा गया है.

2015 से 2017 के बीच आई 11.9% फ़िल्मों में मुख्य किरदारों में महिलाएं थीं, जबकि 70 के दशक में ये आंकड़ा महज़ 7% था.

इस तरह के बदलाव की हिंदी फिल्मों में बेहद ज़रूरत भी है. पहले मुख्य किरदार अभिनेताओं के लिए ही लिखे जाते थे और अभिनेत्रियां मात्र सहायक किरदार में होती थीं. कहते हैं फ़िल्में समाज का आईना होती हैं, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि फ़िल्मों का समाज पर भी असर पड़ता है. यदि फ़िल्मों में महिलाओं की छवि वास्तविक होगी, तो इसका असर समाज पर भी होगा. फ़िल्में बदलाव का बेहतरीन माध्यम बन सकती हैं.