Begum Rokeya: देश और सोच कितनी भी आगे बढ़ जाए बात जब महिलाओं की आएगी तो सोच का संकुचित होना लाज़िमी है. फिर वो महिलाओं की पढ़ाई का मुद्दा हो या सुरक्षा का, बात उनकी आज़ादी की हो या अधिकारों की. किसी को भी इन सब बातों की परवााह नहीं है. कहीं वो महिलाएं मुस्लिम समुदाय की हों तो समझो उनका भगवान ही मालिक है.
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ScoopWhoop Hindi के #DearMentor सेगमेंट में उन महिलाओं के बारे में बात की जा रही है, जो समाज को बदलने की ओर अग्रसर हैं. ऐसी ही एक मुस्लिम महिला हैं बेग़म रोकैया, जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दिलाया और उनके लिए एक महिला स्कूल भी खोला तो मुस्लिम महिलाओं की #DearMentor बेग़म रोकैया के बारे में विस्तार से जानते हैं.
महिलाओं की स्थिति में सुधार आने की वजह महिलाओं का अपने लिये खड़ा होना है, अपने साथ हो रहे ग़लत के ख़िलाफ़ बोलना है. पुरुषों के समाज महिलाओं को जगह मिलना मुश्किल ज़रूर था, लेकिन नामुमक़िन नहीं. ऐसी ही एक निर्भीक मुस्लिम महिला थीं, रोकैया सखावत हुसैन, या बेग़म रोकैया (Begum Rokeya), जिन्हें शिक्षा चाहिए थी और उस शिक्षा को अन्य महिलाओं तक पहुंचाना भी था. अपने साहस के चलते इन्होंने भारत को पहला महिला मुस्लिम स्कूल दिया.
बेग़म रोकैया का जन्म 1880 में बंगाल प्रेसीडेंसी के रंगपुर में एक बंगाली मुस्लिम परिवार में हुआ था. वो एक साइंस फ़िक्शन राइटर थीं. रोकैया ने इस स्कूल की नींव 1 अक्टूबर 1909 को भागलपुर में केवल 5 मुस्लिम लड़कियों के साथ स्कूल की शुरुआत की थी. इसका नाम इन्होंने अपने पति के नाम पर ‘सखावत मेमोरियल गर्ल्स स्कूल‘ रखा. हालांकि, वो घरेलू कारणों से भागलपुर में नहीं रह सकीं और कलकत्ता जाने का फ़ैसला किया.
इन्होंने महिलाओं के लिए एक ऐसी दुनिया बनाई, जिसमें न कोई पाबंदी थी न कोई रोक-टोक, जिसमें सिर्फ़ पढ़ाई थी और जीने की पूरी आज़ादी थी. इसे नाम दिया था, लेडीलैंड (Ladyland). इसका ज़िक्र रोकैया ने अपनी क़िताब Sultana’s Dream में किया है.
रोकैया का जन्म जिस दौर में हुआ था उस दौर में महिलाओं को पुरुषों से ऊपर बोलने की आज़ादी नहीं थी. इनका परिवार भी कुछ ऐसा ही था रोकैया और रोकैया की बड़ी बहन दोनों को पढ़ने का शौक़ था. इनकी बहन को साहित्य का शौक़ था, लेकिन 14 साल की उम्र में शादी हो जाने की वजह उन्हें अपने मन को मारना पड़ा, जिससे रोकैया का दिल टूट गया.
फिर जब रोकैया 18 साल की हुई थीं तो उनके साथ भी कुछ ऐसा ही करने की सोची गई, लेकिन रोकैया के भाई उनके दिल का हाल जानते थे कि वो कुछ करना चाहती हैं पढ़ना चाहती हैं इसलिए उन्होंने एक परिवार ढूंढा जहां उन्हें आज़ादी से जीने को मिले क्योंकि रोकैया स्कूल में पिता की मर्ज़ी से उर्दू सीखने जाती थीं, लेकिन वहां पर कई अन्य भाषाओं का भी अभ्यास करती थीं.
फिर इनके ही भाई की मर्ज़ी से इनका निकाह भागलपुर (बिहार) के रहने वाले अंग्रेज़ी सरकार के अफ़सर ख़ान बहादुर सखावत हुसैन के साथ हो गया, जिनकी उम्र 40 साल थी. उन्होंने रोकैया को पढ़ने का मौक़ा दिया और 1902 में साहित्यिक करियर की शुरुआत ‘पिपासा (प्यास)’ नाम से एक बंगाली निबंध से हुई. इसके बाद, 1905 में ‘मातीचूर’ नाम की किताब लिखी, लेकिन इन्हें पहचान ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ से मिली.
पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करने वाले अपने पति के साथ से घर में मुस्लिम बच्चियों को कोचिंग देना शुरू किया. मगर पुरुषोंं को ये बात पची नहीं और उन्होंने धमकियां देनी शुरू कर दीं. वो डरी नहीं और बिना डरे मुस्लिम महिलाओं के लिए पहले स्कूल की नींव रखी. 1909 में अपने पति की मृत्यु के बाद रोकैया ने अपना पूरा समय बच्चियों की पढ़ाई को दिया और उनके बचे पैसों से स्कूल खोला.
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आज इस स्कूल में सैंकड़ों छात्राएं पढ़ाई कर रही हैं, जिस स्कूल को बनने से हज़ार पुरुषों की धमकियां नहीं रोक पाई थीं. मुस्लिम महिलाओं के लिए इस नेक पहल को करने वाली बेग़म रोकैया ने 1932 में पाकिस्तान और बांग्लादेश के निर्माण से बहुत पहले इस दुनिया को अलविदा कह दिया.