मुझे याद नहीं मैंने पहली बार ‘पीरियड्स’ शब्द कहां सुना था. घर में तो नहीं, दसवीं तक नहीं, शायद 11वीं-12वीं में. ऐसा नहीं था कि मेरे घर में पुरुष ज़्यादा थे या मेरी पढ़ाई को-एड स्कूल में नहीं हुई थी. बावजूद इसके मुझे महिलाओं के मासिक धर्म के बारे में पहली जानकारी मेरे किसी बड़े उम्र के दोस्त द्वारा मिली, वो भी किसी जागरुक करने वाले तरीके से नहीं, उस जानकारी में कामुकता थी.

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आज भी मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि मैं पीरियड्स के बारे में सब जानता हूं. अभी भी ज्ञान का स्तर सतही ही है और जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि आज से 10 साल पहले मेरे घर में जो हालात थे, वो आज भी कायम हैं. जिस स्कूल में मेरी पढ़ाई हुई, मेरे चाचा के बच्चे भी वहीं पढ़ते हैं, उम्र होगी 14 साल. मेरी तरह उन्हें भी पीरियड्स के बारे में कुछ ख़ास नहीं पता. हां, आज गूगल इन्फॉर्मेशन का एक बड़ा स्रोत है, तो उसने जिज्ञासावश गूगल कर थोड़ी बहुत जानकारी ली है, लेकिन वो उसे पूरी तरह समझ नहीं पाया. 10 साल पहले सैनेटरी नैपकिन के विज्ञापन जिस तरह के होते हैं, आज भी वैस ही होते हैं. आज भी प्रयोग के लिए दिखाए जाने वाले पानी का रंग नीले से लाल नहीं हो पाया है. सेनेटरी नैपकिन का Ad आने के इतने सालों बाद शायद एक ही बार और शायद पहली बार किसी Ad में लड़की को Sanitary Napkin इस्तेमाल करते हुए दिखाया गया है.

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ऐसा नहीं है कि ये माहौल सिर्फ़ छोटे शहरों में है. दिल्ली, जहां मैं काम करता हूं. मेरा उठना बैठना एक तथाकथित सभ्य समाज में होता है. मेरे चारों ओर पढ़े-लिखे लोग रहते हैं. वहां भी पीरियड जैसे टॉपिक पर बात करते हुए लोग असहज हो जाते हैं. बातचीत मज़ाक तक सीमित है तो ठीक, अगर कुछ गंभीर बोल दिया, तो कई लोग बगलें झांकने लगते हैं. पहले तो कई लड़की खुल कर पीरियड पर बात नहीं करती और अगर अपने दोस्तों के बीच वो कुछ ऐसा बोल भी गई तो आस-पास मौजूद लोगों के कान खड़े हो जाते हैं.

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मैं अपने निजी अनुभव से ये बात कह रहा हूं, मैं ग़लत भी हो सकता हूं. मैंने आज तक किसी घर में लड़की के पास बाकि सामान की तरह सैनेटरी नैपकीन पड़े नहीं देखे. जैसे कंघी, घड़ी, कॉस्मेटिक्स, Undergarments गैर-ज़िम्मेदाराना लहज़े में इधर-उधर रखे रहते हैं, पैड के साथ ऐसा नहीं है. उसे नज़रों से दूर, छिपा कर ही रखा जाता है. यहां मेरी मंशा ये नहीं है कि मैं दूसरों के खाने के टेबल पर पैड रखने की शिफ़ारिश कर रहा हूं. मेरा कहना है कि वो कौन सी मानसिकता है, जो उसे छिपवाती है. उसके दिख जाने से क्या अनर्थ हो जाएगा? क्या घर के लोग या मेहमान महिलाओं द्वारा इस्तमाल होने वाले पैड को देख लेंगे को उनका मन दूषित हो जाएगा या घर की इज़्ज़त नीलाम हो जाएगी? अपनी खोखली मानसिकता की वजह से हम कब तक इस प्राकृतिक सच्चाई को झुठलाएंगे?

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मैंने अपनी अब तक की ज़िंदगी में किसी लड़की को लिपस्टिक की तरह खुलेआम सैनेटरी नैपकिन शेयर करते नहीं देखा. वो कौनसी मजबूरी है जो लड़कियों से ये काम लुक-छुप कर करवाती है. यहां तक कि दुकानदार भी सैनेटरी नैपकिन लड़कियों को कुरकुरे के पैकट की तरह सीधा हाथ में नहीं देता, उसे किसी तरह छुपा कर ही दुकान से बाहर निकलना पड़ता है. एक बच्चा भी महिलाओं के इस बर्ताव का विशेलषण करेगा तो उसे समझने में देरी नहीं लगेगी कि समस्या की जड़ पुरुष सत्तात्मक समाज की ज़मीन में छिपी है. कुछ भारतीय धार्मिक मान्यताएं इसे पोषित करने का काम करती हैं. ये तो शुक्र है परिवार की आर्थिक ज़रुरतों का, जिसकी वजह से शर्तों के साथ ही सही महिलाओं को भी पैसे कमाने के लिए घर की दहलीज़ लांघने दी जा रही है और वो बदलते समाज को देख पा रहीं हैं और मांगों के लिए आवाज़ उठा रही हैं. वर्ना हालात तो ऐसे थे कि मासिक धर्म के दौरान घर की महिलाओं का बोरिया-बिस्तर और दाना-पानी भी अलग कर दिया जाता था.

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महिला जब मासिक धर्म में होती है, तब उसके साथ कैसा बर्ताव होता है, इसके बारे में इंटरेट पर ही इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अगर उसको संग्रहित किया जाए, तो दस महाग्रंथ तैयार हो जाएं. ऊपर से कुछ लोग इस मुद्दे पर लिखे जाने के ख़िलाफ़ हैं. उनके अनुसार ये मुद्दा ग़ैरज़रूरी है. महिला सशक्तिकरण के लिए इससे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, जिन पर जागरूकता फैलानी चाहिए. ठीक है, बाकि मुद्दे महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि इस समस्या को नकार दिया जाए. और इसे सिर्फ़ महिलाओं तक सीमित करना भी एक बेवकूफ़ी है. विचार-विमर्श से पुरुषों की अज्ञानता भी तो जाएगी. मानव सभ्यता मंगल तक पहुंच गई और जानकारी अपनी आधी आबादी से जुड़ी सामान्य बातों की भी नहीं. इसलिए अब तक जितना कुछ भी लिखा या बोला गया है, वो नाकाफ़ी है. इसका इतना प्रसार होना चाहिए कि एक दिन एक बहन अपने भाई से इस पर बात करने में झिझके नहीं.