हम अक्सर इस बात पर चर्चा करते हैं कि लड़कियां किस तरह समय के साथ ये जान पा रही हैं कि उनके लिए क्या सही है और क्या नहीं. कि उनके अधिकार क्या क्या हैं. कि बहुत सारी बातें जो उनसे आमतौर पर कही जाती हैं, वो दरअसल ग़लत हैं. 

हालांकि, साथ ही ये भी ज़रूरी है कि हम इस बदलाव में लड़को की जर्नी के बारे में भी बात करें. जैसे लड़कियां अपने आसपास कही जाने वाली बातों और व्यवहार के बारे में जान रही हैं वैसे ही लड़के भी तो उन बातों को समझ रहे हैं. 

तो हमने कुछ लड़कों से बात की और जाना उनकी जर्नी के बारे में: कि कैसे उन्होंने पहली बार किसी लड़की या महिला के साथ कोई ग़लत व्यवहार किया और उन्हें इस बात का कैसे अहसास हुआ. 

1. मेरे पापा पैरामिलिट्री फ़ोर्स में थे तो घर और बाहर का सारा काम मेरी मां ही संभालती थी. मगर मुझे बचपन से ही लगता था कि स्त्रियां बाहर के कामों के लिए नहीं बनी है. तो मैं अपनी मां से कहता भी था कि तुम ये क्या कर रही हो, तुम्हारे बस का नहीं है ये सब कुछ. बहुत लम्बे अरसे तक मेरी यही सोच थी कि घर का काम औरतें करती हैं और बाहर के कामों के लिए पुरुष ही बने हैं. मेरी सोच तब बदली जब में अपने घर से पहली बार बाहर निकला और दिल्ली जैसे महानगर पढ़ाई और नौकरी के लिए आया. तब मुझे समझ आया कि घर और बाहर के काम जैसा कुछ नहीं होता और इससे स्त्री और पुरुष का कोई लेना-देना नहीं है.   

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2. कॉलोनी में मेरे कुछ दोस्त थे जिनके साथ मैं अक्सर समय बिताया करता था. मेरा एक दोस्त था जो अपने आस-पास गुज़रती लड़कियों को सीटी मारा करता था या घूरता था. उस समय तो मैं कुछ समझ नहीं पाता था न ही बोलने की इतनी हिम्मत थी. जब बड़ा हुआ कॉलेज में आया तब एक बार कॉलेज में एक प्रोफ़ेसर हमें समझाया कि कैसे लड़कों की ऐसी हरक़तें लड़कियों को असुरक्षित महसूस करवाती हैं. उस समय मुझे एहसास हुआ कि एरा दोस्त कितना ग़लत था और मैं भी. 

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3. मैं बॉयज़ स्कूल में पढ़ता था और बगल में ही गर्ल्स का स्कूल भी था. जब स्कूल की छुट्टी हो जाती थी तब मैं, मेरे कुछ दोस्त और सीनियर्स बाहर खड़े हो जाते थे और जिन रिक्शे में लड़कियां जा रही होती थीं उन्हें पीछे से रोका करते थे और लड़कियों को परेशान किया करते थे. उस समय तो ये सब करने में बड़ा मज़ा आता था. सीनियर्स बोलते थे ये मर्दानगी दिखाने का तरीक़ा है. मगर एक दिन मेरे बड़े भईया ने मुझे ये सब करते देख लिया और उन्होंने मुझे समझाया ये सब करना ग़लत है. तब मुझे समझ आया कि कैसी गन्दी सोच का शिकार था में और वो लड़के भी. ख़ैर, मुझे तो अक़्ल आ गई. उम्मीद है कि उनकों भी आ गई होगी. 

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4. बात बेहद मामूली सी है. कुछ सालों पहले तक तो मैं यही सोचा करता था कि जब भी मैं किसी लड़की के साथ बाहर खाने-पीने जाऊं तो रुपये देना एक लड़के का फ़र्ज़ होता है. लड़कियों से पे करवाना अच्छी बात नहीं होती है. तो ऐसे ही एक बार मैं अपनी किसी दोस्त के साथ बाहर खाने गया था. और हमेशा की तरह जैसे ही रुपये देने का समय आया मैंने ज़िद की कि मैं ही दूंगा, अच्छा नहीं लगता तुम लड़की हो. इस पर मेरी उस दोस्त ने मुझे समझाया कि रुपये देना कोई लड़के का फ़र्ज़ नहीं है. तुम कमाते हो तो मैं भी कमाती हूं और अपने लिए ख़ुद पे करना मुझे आता है. हम लड़को को किसी लड़के की ज़रूरत नहीं है. मेरी उस दोस्त कि इन बातों ने उस दिन वास्तव में मेरा नज़रिया बदल दिया था.   

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5. 14 या 15 साल का था, जब मेरे बगल से एक लड़की फ़ोन पर बात करते हुए निकल रही थी. मैंने उसको छेड़ने के लिए उसकी नक़ल की. वो रुकी और मुड़ कर मुझे कुछ पल के लिए देखा. उसके कुछ पल के घूरने ने ही मेरे अंदर डर ला दिया था. मगर मैं तब भी समझा नहीं था कि क्या ग़लत कर रहा हूं. तभी पड़ोस में रहने वालों ने मेरी इस हरक़त के बारे में घर में बता दिया था. घर गया तो मम्मी-पापा ने बहुत डांटा, मारा और समझाया. उस दिन से मैं ख़ुद भी किसी लड़के को अगर ऐसी हरक़त करते देखता हूं तो चुप नहीं बैठता. 

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6. मुझे हमेशा लगता था कि मां का तो सही है घर पर बैठी रहती हैं दिन-भर आराम ही आराम. एक बार क्या हुआ कि मां कुछ घंटों के लिए किसी काम से बाहर गई थीं. मैं घर आया, किचन से खाना लेकर बैठा ही था कि प्लेट गलती से नीचे गिर गई और खाना फैल गया. घर में और खाना भी नहीं था. मैंने मम्मी को फ़ोन लगाकर उन्हें घर जल्दी आने को कहा. मगर मुझे बहुत ज़ोरों की भूख लग रही थी तो मैंने ख़ुद ही बनाने का सोचा. इधर जैसे-तैसे खाना बना ही रहा था कि तभी कुछ मेहमान आ गए. उनके लिए भी एक तरफ़ चाय-वगैरह रखी. मगर अब मैं मेहमानों के सामने तो खा नहीं पाता. ख़ैर, इधर मेहमानों का ध्यान रख ही रहा था कि मम्मी आ गईं. मम्मी ने आते ही सब संभाल लिया, मेरा खाना, मेहमान और इधर-उधर सारा काम. शाम हुई जब मैंने मां से पूछा कि तुमने कुछ खाया तो उन्होंने बोला समय ही नहीं मिला. उस समय मां को देख मुझे बहुत रोना आया और बुरा भी लगा. उस दिन मेरी आंखें ख़ुल गई और मां के लिए अपने मन में बनाए विचार पर शर्म आ रही थी.     

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7. मेरे पापा मुझे हमेशा बोलते थे कि लड़कियों से रुपये नहीं संभाले जाते हैं. वो मैथ्स और लॉजिकल चीज़ों के लिए नहीं हैं. इसलिए बड़े होते वक़्त स्कूल में अगर मैथ्स की फीमेल टीचर होती तो मैं उनके क्लास में कभी ध्यान नहीं देता था. मेरे मन में बसा हुआ था कि ये तो ग़लत ही पढ़ाती होंगी. मगर मैं 11वीं कक्षा मैं था जब मुझे मेरी कोचिंग की एक टीचर ने समझाया कि ये सब बक़वास है. हां, बेशक़ मुझे उनकी बात समझने में समय लगा मगर जब मैं पूरी तरह से समझ गया कि इतने साल जो मैं इस बात पर यकीन करता आया वो और कुछ नहीं हमारे समाज के बनाए अपने बेफ़िज़ूल की बातें हैं. मुझे बेहद बुरा लगा. अपनी सोच पर, अपने पिता की सोच पर भी. आज मैं शादी-शुदा इंसान हूं और मेरी बीवी दिल्ली यूनिवर्सिटी में मैथ्स पढ़ाती है.