रविवार को ऐसे ही घर पर बैठे यूट्यूब पर उंगलियां दौड़ा रही थी. बहुत देर से कुछ अच्छा देखने की कोशिश कर रही थी मगर कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. तभी मुझे अचानक से याद आया कि मेरी एक दोस्त मुझे ‘घर की मुर्गी’ शॉर्ट फ़िल्म देखने के लिए कहा था.
15 मिनट की इस शॉर्ट फ़िल्म ने चंद पलों में ही मुझे बांध लिया था. और मैं कैसे इस कहानी से न बंधती, सीमा की ये कहानी हर मां या हाउस वाइफ़ की है.
मेरी मां भी एक रूटीन में बंधी हुई हैं. वो घर का छोटे से छोटा काम संभालती हैं.
उनकी सुबह हम सबकी सुबह होने से पहले ही हो जाती है. वो घर में सबसे पहले जागती हैं. जब तक हम सब सो कर उठते हैं तब तक घर का कोना-कोना चमक रहा होता है. एक तरफ़ मां पापा के लिए चाय बना रही होती हैं, मेरे और भाई के लिए इधर दूध बन रहा होता है और नाश्ते की भी तैयारी चल रही होती है. जहां पापा तो अपना अख़बार लेकर घर का एक कोना पकड़ लेते हैं वहीं मां की भाग-दौड़ चालू रहती है.
कुकर की सिटी बंद करना, सबके पसंद का खाना बनाना, घर को हर समय देखते रहना, पड़ोसियों से भी व्यवहार रखना, अगर घर पर कोई मेहमान आ भी जाए तो उनसे एक तरफ़ बातें करना दूसरी तरफ़ उनके लिए नाश्ता बनाते हुए घर के बाक़ी काम भी निपटाते रहना, बच्चों के होमवर्क से लेकर उनके पेंसिल-रबर हर एक चीज़ की ख़बर रखना. आख़िर, कैसे-कैसे कर लेती हैं वो ये सब…?
अच्छा इतना ही नहीं मेरी मां, पापा के बिज़नेस में भी बहुत बड़ा सहारा हैं. वो पापा के बिज़नेस का आधे से ज़्यादा काम संभालती हैं. ऐसे में घर के काम के साथ-साथ वो ये भी संभाल लेती हैं. सच में वो तो कोई SUPERWOMAN हैं!
मगर मैं हमेशा से उनको SUPERWOMAN नहीं समझती थी.
मैंने बरसों तक मां के इन कामों को फ़ॉर ग्रांटेड लिया है. मुझे ये बेहद ही नॉर्मल लगता था. बल्कि मुझे लगता था मां कि ज़िंदगी तो कितनी सही है उन्हें दिन-भर घर में ही रहना पड़ता है न कि पापा और मेरी तरह बाहर जाकर कोई काम करना पड़ता है. कई समय तक मेरी नज़रों में मां का काम कोई काम नहीं था. वो कई बार मुझसे और पापा से शिकायत किया करती थी कि तुम लोग कभी तो मेरी मदद कर दो लेकिन मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता था. मुझे लगता था मां बेकार में ही शिकायत करती रहती हैं.
ये तो इधर कुछ सालों में मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि मां हमारे लिए बिन बोले कितना कुछ कर जाती हैं और आज भी कर ही रही हैं. वो क्या है न कई बार जब तक ख़ुद पर नहीं बीतती तो आपको एहसास नहीं होता कि सामने वाला आपके लिए कितना कुछ करता है. जब दिल्ली आकर मुझे हर काम ख़ुद से करना पड़ता है तब मुझे एहसास हुआ कि मां का काम हम सबके कामों से कितना ज़्यादा ज़रूरी है.
ये एक ऐसा काम है जिसमें आप कितना भी कर लो आप हमेशा अनदेखे रहोगे, ऐसा काम जिसमें कोई छुट्टी नहीं, ऐसा काम जिसके बिना हर दूसरा काम नामुमकिन सा है फिर भी यही सुनने को मिलेगा कि ‘घर पर दिन भर करती ही क्या हो?’.
बहुत ज़रूरी है कि हम अपनी मां या हॉउसवाइफ़ को इस टैग से हटकर एक व्यक्ति की तरह ट्रीट करें. जानें, कि उनकी पसंद न पसंद क्या है? उनसे पूंछे कि उनका दिन कैसा गया या उन्होंने क्या खाया? बेहद ज़रूरी है कि हम उन्हें वो प्यार लौटाएं जो वो दिन भर हम पर लुटाती रहती हैं. बेहद ज़रूरी है कि हम उनकी ज़रूरतों को भी समझें.