कभी सोचा है कि जिन देशों को हम हसरत भरी निगाहों से देखते हैं, वे आज से सौ साल पहले कैसे थे? उन देशों के क़ानून उन सालों में कैसे थे?
पता है, बहुत लम्बे अरसे तक अमेरिका में महिलाओं को समाज के लिए बाधा माना जाता था. सोच तो बहुत दूर की बात है उनको क़ानून ने ही समान अधिकार और मान्यता नहीं थी. लिंग के आधार पर भेदभाव करने वाले सौ राज्य नहीं बल्कि हजारों राज्य और संघीय कानून थे, जो मानते थे स्त्रियों की जगह एक पुरुष के पीछे है.
क़ानून जैसे:
-पति ही घर का राजा है. वो ही तय करेगा परिवार कहां रहेगा और महिलाएं उनकी बात मानने करने के लिए बाध्य हैं.
-अधिकांश राज्यों में महिला के गर्भवती होने पर कंपनियां उन्हें क़ानूनी तौर पर नौकरी से निकाल सकती थीं.
– बैंक में क्रेडिट का आवेदन करने के लिए महिलाओं को अपने पति के हस्ताक्षर की ज़रूरत है.
– बहुत से राज्यों में पत्नियों के साथ बलात्कार करने पर पतियों पर मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता है.
ये तो कुछ ही हैं. अगर अब खोजेंगे तो ऐसे न जाने कितने मिलेंगे जिन्हें पढ़ आपको ग़ुस्सा और घिन दोनों आएगी. पर अब बात ये की आख़िर अमेरिका महिलाओं के लिए इतना बदला कैसे? इस बदलाव में बहुत सारी लोगों की मेहनत और बहुत सालों का वक़्त लगा है.
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‘जस्टिस रूथ गिन्सबर्ग’ भी एक ऐसी महिला हैं, जिन्होंने हज़ारों साल पुराने इन क़ानूनों में बदलाव लाकर महिलाओं के लिए न केवल आने वाला समय बदला बल्कि अमेरिका का पूरा रूप ही बदल दिया.
ब्रुकलिन, न्यू यॉर्क के एक मिडिल क्लास में जन्मी रुथ के जीवन पर उनकी मां का एक गहरा प्रभाव था. उनकी मां भले ही पढ़ी-लिखी नहीं थी मगर उन्होंने रूथ को हमेशा स्वतंत्र होने की शिक्षा दी. साथ ही उनकी पढ़ाई को लेकर भी काफ़ी गंभीर रही.
मगर जैसे-जैसे रूथ बड़ी होती गई उन्होंने महसूस किया और देखा कि अमेरिका में किस तरह ये लिंग भेद लोगों के जीवन का हिस्सा बना हुआ है. जो एक विशेष वर्ग यानि महिलाओं को पीछे की और धकेले हुआ है.
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Cornell University से स्नातक की डिग्री लेने के बाद 1957 में रूथ ने Harvard law school से क़ानून की पढ़ाई की. उस समय 500 पुरुषों की क्लास में मात्र 9 लड़कियां थी जिनमें की एक रूथ भी थी. जहां, योग्य पुरूषों का स्थान लेने के लिए स्कूल के अध्यक्षा ने इन महिलाओं का अपमान किया.
जहां रूथ ने पढ़ाई में अपना सर्वश्रेष्ठ दिया और प्रतिष्ठित क़ानूनी पत्रिका, हार्वर्ड लॉ रिव्यू (The Harvard Law Review) की पहली महिला सदस्य बन गईं.
क़माल के शैक्षिक रिकॉर्ड के बावजूद, पूरे न्यू यॉर्क में रूथ को नौकरी देने के लिए एक भी फ़र्म नहीं थी क्यों? क्योंकि वो एक महिला थीं.
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इसके बाद, 1963 में रूथ ने Rutgers University Law School में एक लॉ प्रोफ़ेसर की तरह पढ़ाना शुरू किया. जहां बच्चों के कहने पर रूथ ने ‘महिला और क़ानून’ को लेकर एक नया कोर्स शुरू किया और ये वो समय था जब रूथ ने लिंग भेदभाव के मामलों को क़रीब से पढ़ना शुरू किया.
इसी बीच American Civil Liberties Union, महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक परियोजना शुरू कर रहे थे. उन्होंने इस परियोजना के वकील के तौर पर रूथ को चुना.
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला क़ानून की तरह माना जाता है, इसलिए इस प्रोजेक्ट को सफल बनाने के लिए रूथ ने अपना एक-एक केस बड़ी ही समझदारी से चुना और ये सुनिश्चित किया कि वो सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे और जीते जिससे की वो आगे चलकर एक क़ानून बनें.
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रूथ के लिए सभी केस एक चुनौती थे, क्योंकि ये लड़ाई मानसिकता से थी, उस समाज से थी और उनके लोगों से थी जिनको लगता है लिंग भेदभाव जैसी कोई चीज़ मौजूद ही नहीं है.
जस्टिस रूथ गिन्सबर्ग ने ACLU के वकील के तौर पर 300 से अधिक लिंग भेदभाव के मामलों पर बहस की जिनमें से कई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे.
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1980 में राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने रूथ बेडर गिन्सबर्ग को कोलंबिया जिले के लिए अमेरिकी अपील न्यायालय में नियुक्त किया, उन्होंने वहां 13 साल तक काम किया. 1993 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन द्वारा उन्हें अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के तौर पर नियुक्त किया गया. जहां वो अमेरिका की दूसरी महिला न्यायाधीश बन गई.
जस्टिस रूथ गिन्सबर्ग द्वारा कुछ ऐसे केस जिन्होंने अमेरिका में महिलाओं के लिए रूप-रेखा ही बदल दी.
1. Frontiero V Richardson (1973)
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– 1970 में Sharron Frontiero नाम की एक महिला जो वायु सेना में लेफ्टिनेंट की नौकरी कर रही थी. नौकरी करते वक़्त उन्हें पता चला की उनके साथ काम करने वाले सभी पुरुषों को आवासीय भत्ता मिल रहा था, मगर उन्हें नहीं क्योंकि वो एक महिला हैं.
– उन्हें लगा कि ये कंपनी की तरफ़ से कोई ग़लती होगी. तो जब वो इस शिकायत को लेकर ऑफ़िस गईं, उन्हें बोला गया, “आप ख़ुशक़िस्मत हैं कि हमने आपको यहां आने दिया. आप भाग्यशाली हैं कि वायु सेना आपको सेवा करने की अनुमति देती है.”
– जिसके बाद उन्होंने मुक़दमा किया और ये रूथ का पहला केस था. जो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में लड़ा और जीता.
2. Weinberger V Wiesenfeld (1975)
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– Stephen Wiesenfeld की पत्नी, Paula अपने बच्चे को जन्म देने के बाद मर जाती है. जिसके बाद बच्चे का पिता सारी ज़िम्मेदारियां निभाता है.
– जब वो सरकारी दफ़्तर जाकर ये पता करते हैं की एक अकेले अभिवावक के लिए सरकार द्वारा क्या सुविधाएं हैं तब उसको वहां ये बताया जाता है कि वो सुविधाएं मां के लिए होती हैं, आप इस श्रेणी में नहीं आते हैं.
– ये मामला सुप्रीम कोर्ट जाता है और रूथ एक बार फिर जीत जाती हैं. उसके बाद नौकरियों में महिलाओं और पुरुषों को बराबर का भत्ता मिला.
3. United States V Virginia (1996)
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– वर्जिनिया का 157 साल पुराना एक पुरुष सैन्य कॉलेज VMI, जहां एक लड़की दाख़िला लेना चाहती थी मगर उसे मना कर दिया गया. जिसके बाद उसने मुक़दमा कर दिया की कॉलेज का सिर्फ पुरूषों को दाख़िला देना उन से उनके अधिकारों को छीनता है.
– ये मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में जाता है और 1997 में VMI में पहली बार लड़कियों ने दाख़िला लिया.
– Kelly Sullivan, VMI मैं दाख़िला लेने वाली एक महिला कहती हैं, “हम यहां परंपरा को तोड़ने के लिए नहीं थे, इतिहास को बर्बाद करने के लिए नहीं थे बल्कि इसे विकसित करने में मदद करने के लिए थे. उन चार वर्षों में मैंने सबसे अच्छा व्यक्ति बनने के लिए बहुत मेहनत की जो मैं हो सकती थी और सम्पूर्ण में महिलाओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए. मैं वो व्यक्ति बनना चाहती थी जो पुरुषों के सामने खड़ी हो और कहे कि मैं यह भी कर सकती हूं.”
4. Reed V Reed (1971)
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– Sally और Cecil Reed एक शादीशुदा जोड़े थे जो अलग हो गए थे. उनके इकलौते बेटे Richard की मौत हो गई थी. जिसके बाद दोनों में इस बात की लड़ाई चली की उनके बेटे की सम्पति का मालिक कौन होगा ? जिसके लिए Sally और उनके पति Cecil दोनों ने ही एक याचिका दायर की.
– मगर बिना कोई पड़ताल किए Cecil की याचिका मंज़ूर कर ली जाती हैं क्योंकि Idaho के कानून अनुसार जायदाद की नियुक्ति के लिए ‘पुरुषों को महिलाओं से पहले मौका मिलना चाहिए’. जिसके बाद Sally का ये मामला सुप्रीम कोर्ट जाता है और यह पहली बार था जब न्यायालय ने लिंग के आधार पर भेदभाव करने वाले कानून के लिए समान संरक्षण खंड लागू किया था.
5. Craig V Boren (1976)
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– Curtis Craig नामक एक व्यक्ति जिसकी उम्र 18 से 21 के बीच थी और Carolyn Whitener का कहना था की ओकलाहोमा शहर के कानून के हिसाब से महिलाओं को 18 साल के बाद अल्कोहल पीने की इजाज़त थी जबकि पुरुषों को 21 साल होने के बाद जो की उनकी नज़र में भेदभाव है.
– कोर्ट में यह मामला गया और इसको लिंग भेदभाव बता कर बदलाव किया गया.
जस्टिस रूथ गिन्सबर्ग पर बनी डॉक्यूमेंटरी यहां देखें – Netflix