फिल्मी पर्दे पर महिलाओं को हमेशा से नम्र, सौम्य और अतिसंवेदनशील दिखाया जाता रहा है. हिंदी फ़िल्म इतिहास के शुरुआती दौर की अगर बात की जाए तो महिलाएं ज़्यादातर अपने पति की छत्र छाया में ही रची-बसी रहती थीं, लेकिन बदलते समय के साथ फ़िल्मों में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी है. 

रेट्रो यानि 50 और 60 के दशक में तो महिलाओं के ग्रे शेड और बोल्ड किरदार केवल वैंप और आइटम गर्ल का रोल निभाने वाली महिलाओं तक ही सीमित थे, क्योंकि भारतीय समाज में ऐसे किरदारों को अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता था.

शुरुआती दौर में महिलाओं का फ़िल्मों से जुड़ना ही समाज में एक अपराध के तौर पर देखा जाता था लेकिन बदलते वक्त के साथ न केवल महिलाओं ने बॉलीवुड में अपनी एक अलग पहचान बनाई है, बल्कि आज वे इस पुरुष प्रधान इंडस्ट्री में अपने समकालीन कलाकारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं. 

आज फिल्म को हिट कराने के लिए निर्देशक और निर्माताओं को सिर्फ़ हीरो पर ही निर्भर नहीं होना पड़ता बल्कि बॉलीवुड पंडित जानते हैं कि अगर स्क्रिप्ट अच्छी हो तो एक्ट्रेस भी प्रोड्सूयर्स को 100 करोड़ से ज़्यादा की फ़िल्म देने में सक्षम है.

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1950 के दशक में सिनेमा में महिलाओं के चित्रण में बिमल रॉय एक संवेदनशील निर्देशक के रूप में उभरे थे. रॉय की फिल्में जैसे ‘बंदिनी’ और ‘सुजाता’ में महिलाओं के किरदार काफी मजबूत और यथार्थ के करीब थे. 

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इसके बाद 60 के दशक में आई ‘मदर इंडिया’ उन शुरुआती फ़िल्मों में से थी, जिसने बॉलीवुड में महिलाओं की प्रासंगकिता का एक नया कलेवर प्रदान किया था. ये एक ऐसी महिला की कहानी थी जिसे अपनी ज़िन्दगी के हर मोड़ पर कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा लेकिन अपनी कभी न हार मानने वाली प्रवृत्ति की बदौलत वह हर बार मुश्किलों के दौर को हराने में कामयाब रही. उसकी मानसिक मजबूती का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता था कि अपनी बहू को बचाने के लिए वह अपने अपराधी बेटे को भी अपने हाथों से मार गिराती है.

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‘मदर इंडिया’ ने न केवल बॉक्स ऑफ़िस पर जबरदस्त कामयाबी हासिल की, बल्कि इसने फेमिनिज्म और महिलाओं के अंतर्मन से जुड़ी कहानियों को भी एक नई राह प्रदान की. धीरे-धीरे ही सही लेकिन बॉलीवुड अब महिलाओं से जुड़े कुछ ऐसे मुद्दों को उठाने लगा था, जो कुछ समय पहले तक टैबू समझे जाते थे. हालांकि कमर्शियल सिनेमा के स्तर में अब भी कुछ खास बदलाव नहीं आया था और ऐसी कई फ़िल्मों में महिलाएं केवल शो पीस के तौर पर ही मौजूद थीं लेकिन इसके इतर फ़िल्मों की एक ऐसी जमात भी थी जिनमें महिलाएं अपने आपको अभिव्यक्त करने में समर्थ थीं.

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आने वाले कई सालों में भारत में लोग कई ऐसी महिला केंद्रित फ़िल्मों के गवाह बनने वाले थे. चाहे वो आंधी हो, जिसमें एक महिला राजनेता अपनी पर्सनल लाइफ़ और पब्लिक ज़िम्मेदारियों के बीच सामंजस्य बिठाने को संघर्षरत थी या फिर भूमिका, जिसमें स्मिता पाटिल प्यार, मकसद और अपने अस्तित्व की तलाश को कई परेशानियों के बीच भी जारी रखती हैं. 

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फ़िल्म अर्थ, खून भरी मांग, मिर्च मसाला, मोहरा, लज्जा, अस्तित्व, पिंजर, चांदनी बार, चमेली, सत्ता जैसी कई फ़िल्मों ने महिलाओं की बॉलीवुड में बढ़ती प्रासंगिकता को नए आयाम दिए. हालांकि ये सभी फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर हिट नहीं हुईं लेकिन ये सभी फ़िल्में देश के पितृसत्तात्मक और पुरुष-प्रधान समाज को चुनौती देने में ज़रूर कामयाब रहीं.

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हालिया दौर में महिला केंद्रित फ़िल्मों का एक बाजार बन चुका है और अब वे केवल फिल्मों में एक सपोर्टिव किरदार के रूप में नहीं, बल्कि अहम किरदारों में भी नज़र आ रही हैं. सोशल मीडिया के दौर में बॉलीवुड की हर बहुचर्चित फ़ि में फेमनिज्म से जुड़ी कई रायें सामने आती हैं, फिर भले ही वो सलमान खान की फ़िल्म ‘सुल्तान’ हो या आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’. वहीं क्वीन, पिंक, पार्च्ड और कहानी जैसी कई फ़िल्मों ने साबित किया है कि महिला केंद्रित होने के बावजूद भी ये फ़िल्में कमाई करने में सक्षम हैं.