शिक्षा के अधिकार के तहत देश में 14 साल के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा का हक़ मिला हुआ है. लेकिन क्या ये अधिकार शिक्षा के लिए समान माहौल का अधिकार भी देता है?
नहीं, समाज के कई स्तरों पर ये समानता नहीं पाई जाती है. उसमें सबसे बड़ी समस्या है ‘लिंग’ की. इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस देश में महिलाओं को किसी भी क्षेत्र में समान अवसर नहीं मिलते, ख़ास कर शिक्षा के क्षेत्र में. लड़की किसी भी आर्थिक या समाजिक वर्ग का हिस्सा क्यों न हो, उसे भेदभाव का सामना करना ही पड़ता है.
जब बात स्कूल में बच्चों के नाम लिखाने की होती है, तब वहां किसी प्रकार का लैंगिक भेदभाव नहीं दिखती, लेकिन आगे की Classes में लड़कियों की संख्या घटती जाती है, जिसका एक असर भारत की साक्षरता दर पर भी दिखता है. 2011 की जनगणना के अनुसार, जहां देश में 82.14% पुरुष साक्षर हैं, वहीं मात्र 65.46% प्रतिशत महिलाओं को साक्षर पाया गया.
साल 2013 में ग्रामीण इलाकों में 96% बच्चों का नामंकन स्कूल में हुआ था, एक दशक पहले ये आकड़ें 80-85% के बीच में हुआ करते थे. इसे एक सफ़ल प्रयास माना जाना चाहिए,लेकिन इसमें से बच्चों की एक बड़ी संख्या का साथ स्कूल से छूटता गया. 2013 में महाराष्ट्र में 7 से 16 साल की लड़कियां अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी होने से पहले स्कूल छोड़ चुकी थी. जबकि स्कूल जाने वाली छात्राएं, लड़कों के मुक़ाबले कम स्कूल जाती हैं.
लड़कियां की शिक्षा अधूरी क्यों रह जाती है?
इसके तीन मुख्य कारण हैं:
1. घर का काम-काज
शुरुआत से ही भारतीय घरों में लड़की की ट्रेनिंग एक आदर्श बहु बनने की होती है और लड़कों से ऐसे बर्ताव किया जाता है जैसे उन्हें बड़े होकर सिर्फ़ नौकरी ही करनी है. इस दोहरे मापदंड का असर लड़कियों की शिक्षा पर पड़ता है.
Harvard School Of Public ने साल 2013 में गुजरात में सर्वे किया था. जिसके अनुसार 14-17 साल की 37% प्रतिशत लड़कियां Engaged (सगाई) थी, 12 % की शादी हो चुकी थी. वहां लड़कों में इसका प्रतिशत बहुत कम था. उसी आयु वर्ग में 27% लड़के Engaged थे और 3% की शादी हुई थी. मात्र एक राज्य के ये आकड़ें भी पूरे देश की तस्वीर खींचते हैं.
भारतीय समाज की एक मानसिकता ये भी है कि वो अपनी बेटी की शादी के लिए पैसे जुटाते हैं लेकिन उसी पैसों को शिक्षा पर नहीं ख़र्च करते.
2. सुरक्षा
घर से स्कूल/कॉलेज के बीच की जो दूरी है, लड़कियों के लिए उसे तय कर पाना कितना मुश्किल है, ये वही बता सकती हैं. घरवाले अपनी बेटी (घर की इज़्ज़त) को सुरक्षित रखना चाहते हैं. उसे किसी प्रकार की मुसीबत में नहीं डालना चाहते. फिर चाहे इसके लिए उसकी पढ़ाई ही क्यों न छुड़वानी पड़े.
ज़्यादातर लड़कियां अपने साथ होनी वाले बुरे-बर्ताव की बात अपने घर वालों से इसलिए भी नहीं करती क्योंकि उन्हें पता होता है कि इसका सीधा असर उनकी पढ़ाई/नौकरी पर पड़ेगा.
एक और दकियानूसी सोच महिलाओं के ख़िलाफ़ जाती हैं, अगर लड़की ज़्यादा पढ़ लेगी तो खुले विचार की बन जाएगी और घर वालों की बातें नहीं सुनेगी. उसे उतना ही पढ़ाओ, जितना उसकी शादी करने के लिए ज़रूरी है.
3. संसाधनों की कमी
शिक्षा के अधिकार के तहत कुछ क़ायदे भी बनाए गए थे, जिनके अनुसार छात्र और शिक्षक का अनुपात तय है. शिक्षक को कितने घंटे काम करना पड़ेगा, कितने दिन स्कूल खुले रहेंगे, स्कूल के लिए क्या ज़रूरी है लेकिन ये ख़ूबसूरत नियम अभी तक कागज़ों पर ही बसते हैं. इनका ज़मीन पर दिखना एक सुखद संयोग माना जाएगा!
साल 2012 देश के तमाम सरकारी स्कूलों में से 40 % में शौचालय नहीं थे, बाकी 40% में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं थी. ऐसी हालत में लड़कियों के लिए स्कूल जाना और भी मुश्किल बन जाता है.
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