‘नार्थ सेंटिनल आइलैंड’ भारत का एक ऐसा आईलैंड जहां पर जाना बेहद ख़तरनाक माना जाता है. इस आईलैंड पर आज तक जो भी गया वो वापस लौटकर नहीं आया. इसीलिए भारत सरकार ने इस आईलैंड पर लोगों का जाना प्रतिबंधित किया है. बंगाल की खाड़ी में स्थित इस आईलैंड में एक ख़ास जनजाति के लोग रहते हैं, जो आज भी बाहरी दुनिया से परिचित नही हैं.

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साल 2006 में 2 मछुवारे ग़लती से इस आईलैंड पर चले गए थे, जिन्हें इस जनजाति के लोगों ने मार डाला. इस जनजाति के लोग आम लोगों को देखते ही ख़ूंखार हो जाते हैं. इसीलिए पर्यटक यहां जाने से डरते हैं. जानकारों के मुताबिक़, ये जनजाति पिछले 60 हज़ार सालों से यहां रह रही है.

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4 जनवरी, 1991 को भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण की एक टीम इस आईलैंड के दौरे पर गई हुई थी. रिसर्च एसोसिएट के तौर पर मधुमाला चटोपाध्याय भी इस टीम की हिस्सा थीं. ये टीम जैसे ही इस आईलैंड पर पहुंची इस जनजाति के लोगों ने पहली बार किसी महिला को देखते ही उन पर हमला करने के बजाय अपने हथियार झुका दिए. मधुमाला के दोस्ताना व्यवहार से इस जनजाति के लोग उनके क़रीब आने की कोशिश कर रहे थे. ये दृश्य देखकर टीम के अन्य सदस्य हैरान थे, क्योंकि पहली बार कोई इंसान इस जनजाति के इतने क़रीब जा रहा था. 

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दरअसल, इस जनजाति के लोग अपनी ज़मीन पर किसी भी इंसान को पैर नहीं रखने देते हैं. उनकी ज़मीन पर कदम रखने का मतलब होता है मौत. इस तस्वीर में मधुमाला इस जनजाति के एक शख़्स को नारियल देती हुई दिख रही हैं. मानव विज्ञानी होने के चलते मधुमाला इस जनजाति पर भी रिसर्च करना चाहती थी और उन्होंने अपनी जान जोख़िम में डालकर इस आईलैंड पर जाने का फ़ैसला किया. 

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इस दौरान उन्होंने भारत के मानव विज्ञान सर्वेक्षण टीम की सदस्य के तौर पर अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की विभिन्न जनजातियों पर छह साल तक शोध कार्य किये. मधुमाला ही वो पहली महिला हैं, जिन्होंने अंडमान की एक अन्य जनजाति ‘जारवा’ के साथ भी दोस्ताना रिश्ता कायम किया था.

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साल 1975 में पहली बार भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण और A&NI प्रशासन की संयुक्त टीम ने ‘जरावा जनजाति’ से संपर्क साधा था. ये जनजाति पिछले कई सालों से इनके संपर्क में थी, इनसे मुलाक़ात के दौरान सरकारी टीम इस जनजाति के लोगों को केले और नारियल गिफ़्ट के तौर पर देते थे. इन मुलाक़ातों के दौरान कुछ हिंसक घटनाएं भी हुई, जिसके बाद महिला सदस्यों को यहां जाने मना कर दिया गया. इसके साथ ही मधुमाला इस मिशन से दूर हो गयीं. साथ ही उनकी उपलब्धियों को भी भुला दिया गया.

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वो महिला जिसने हमें एक अलग ही दुनिया से रू-ब-रू कराया, वो आज दिल्ली में केंद्र सरकार के किसी मंत्रालय में मिड लेवल अधिकारी के तौर पर नियमित सरकारी फ़ाइलों को संभालने का काम करती हैं. बावजूद इसके उन्होंने कभी भी अपनी सफ़लता को लेकर गुरुर नहीं दिखाया. आज दुनियाभर की कई बड़ी यूनिवर्सिटीज़ में उनकी क़िताबों Tribes of Car Nicobar और Journal Papers का रेफ़्रेन्स दिया जाता है.

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मधुमाला ने निकोबार की Onge जनजाति पर भी कई साल तक रिसर्च कार्य किये. रिसर्च के दौरान जब उन्होंने Onge जनजाति के लोगों के ब्लड सैंपल लिए तो इस जनजाति ने उन्हें Debotobeti यानि कि डॉक्टर का दर्जा दिया. कई साल बाद जब भारत सरकार के अनुरोध पर मधुमाला को फिर से इस जनजाति के लोगों से मिलने का मौका मिला, तो उन्होंने मधुमाला को पहचानते हुए कहा कि उनकी बेटी वापस आ गई है.

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Probashionline.com पर मधुमाला ने अपने उस अनुभव को साझा करते हुए कहा कि ‘उन छह वर्षों के दौरान अंडमान और निकोबार की किसी भी जनजाति के लोगों ने मेरे साथ दुर्व्यवहार नहीं किया. रिसर्च के दौरान कई बार तो मैं अकेली भी चली जाया करती थी. भले ही इस जनजाति की तकनीक हमसे मिलती जुलती हों, लेकिन सामाजिक तौर पर ये आज भी हमसे बहुत दूर हैं.

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इस जनजाति के लोगो को ‘लॉस्ट ट्राइब’ भी कहा जाता है. कुछ रिपोर्टों में इसे दुनिया की सबसे अलग-थलग रहने वाली जनजाति भी कहा गया है. इसलिए भारत सरकार भी इन लोगों के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहती है.

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इस जनजाति के लोग साल 2004 में हिन्द महासागर में आयी सुनामी और भूकंप को भी झेल गये थे, लेकिन इनकी खोज-ख़बर का पता लगाने के लिए जब सरकार के एक हेलिकॉप्टर ने नार्थ सेंटिनल के ऊपर उड़ान भरी, तो हेलिकॉप्टर को देखते ही इस जनजाति ने उस पर पत्थर और तारों से हमला कर दिया.