भारत का वो बदनसीब मुग़ल बादशाह, जिसे 132 सालों तक क़ब्र भी नसीब न हुई

Nripendra

मुग़ल साम्राज्य एक इस्माली तुर्की-मंगोल साम्राज्य था, जो 1526 ईस्वी में शुरू हुआ और जिसका पतन 19वीं शताब्दी के मध्य तक हो गया. भारत में इस साम्राज्य का संस्थापक बाबर को कहा जाता है, जिसने इब्राहिम लोदी (दिल्ली सल्तनत का अंतिम सुल्तान) को हराकर दिल्ली में अपनी पकड़ मज़बूत की. कहते हैं कि 16वीं शताब्दी के मध्य और 17वीं शताब्दी के अंत के बीच मुग़ल साम्राज्य एक बड़ी शक्ति बन चुका था, लेकिन इसके बाद से धीरे-धीरे इसके पतन का सिलसिला शुरू हो गया. वहीं, बहादुर शाह जफ़र के वक़्त मुग़ल साम्राज्य बहुत ही कमज़ोर पड़ गया और दिल्ली तक ही सीमित रह गया. 

देखा जाए, तो बहादुर शाह जफ़र बाकी मुग़ल शासकों से अलग थे, क्योंकि इन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ 1857 के संग्राम का नेतृत्व किया था. वहीं, इन्हें बदनसीब मुग़ल बादशाह भी कहा जाता है क्योंकि इन्हें 132 सालों तक सही क़ब्र भी नसीब न हुई. आइये, जानते हैं क्या है पूरी कहानी.   

पिता नहीं चाहते थे कि बेटा गद्दी पर बैठे 

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मुग़ल साम्राज्य के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफ़र का जन्म 24 अक्टूबर 1775 में हुआ था. वो पिता की मृत्यु के बाद सन् 1837 में मुग़ल की गद्दी पर बैठे. लेकिन, कहते हैं कि उनके पिता अक़बर शाह द्वितीय नहीं चाहते थे कि बहादुर शाह जफ़र मुग़ल की गद्दी पर बैठे. दरअसल, इसकी वजह थी बहादुर शाह जफ़र का कवि और नर्म दिल होना. लेकिन, उनके सिवा और कोई था नहीं, जो मुग़ल साम्राज्य की गद्दी पर बैठ सके.  

शेरो-शायरी के मुरीद    

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बाकी मुग़ल बादशाहों से अलग बहादुर शाह जफ़र शेरो-शायरी के मुरीद थे. उनके दरबार में दो बड़े शायर थे एक मोहम्मद ग़ालिब और दूसरे ज़ौक़. वो ख़ुद शायरी व ग़ज़लें लिखा करते थे. कहते हैं कि अंग्रेज़ों की क़ैद में रहते हुए भी उन्होंने कई शेर और ग़ज़लें लिखीं. दर्द में डूबे उनके शेर जीवन की कई बड़ी सच्चाइयां बयां करते हैं.   

बने आज़ादी के सिपाही  

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ये वो समय था जब अंग्रेज़ों ने लगभग पूरे भारत पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली थी. अंग्रेज़ों की पकड़ कमज़ोर करने के लिए क्रांतिकारियों ने 1857 के विद्रोह की तैयारी की, लेकिन इसके नेतृत्व के लिए किसी बड़े चेहरे की ज़रूरत थी. इसलिए, इस महासंग्राम के नेतृत्व का ज़िम्मा बहादुर शाह जफ़र को सौंपा गया. लेकिन, इसमें जीत अंग्रेजों की हुई और 82 साल के बहादुर शाह जफ़र को अपनी बाकी ज़िंदगी अंग्रेज़ों की क़ैद में गुज़ारनी पड़ी. 

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लकवे के कारण हुई मौत   

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माना जाता है कि बहादुर शाह जफ़र की मौत लकवे के कारण हुई थी. उन्हें 6 नवंबर 1862 को लकवे का तीसरा दौरा पड़ा था. वहीं, 7 नवंबर 1862 की सुबह उनका इंतकाल हो गया. माना जाता है कि रंगून के जिस घर में उन्हें क़ैद करके रखा गया था, उसके पीछे ही उन्हें दफ़ना दिया गया था और ज़मीन समतल कर दी गई थी.   

क़ब्र को पहचाना न जा सके  

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उन्हें क़ब्र में आम इंसान की तरह ही दफ़नाया गया था, ताकि उनकी पहचान न की जा सके. यह एक बदनसीबी ही थी कि इतने बड़े साम्राज्य के अंतिम बादशाह को सही क़ब्र भी नसीब न हुई. कहते हैं कि जब उन्हें दफ़नाया जा रहा था, तो वहां 100 लोगों की भीड़ थी, जो कुछ बाज़ार की भीड़ जैसी लग रही थी.   

132 साल बाद नसीब हुई सही क़ब्र    

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कहते हैं 132 साल बाद एक खुदाई के दौरान एक क़ब्र का पता चला. अवशेषों और निशानियों से पुष्टि की गई कि ये बहादुर शाह जफ़र की क़ब्र है. इसके बाद बहादुर शाह जफ़र की दरगाह 1994 में बनाई गई. यहां महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रार्थना करने की जगह भी बनवाई गई थी. 

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