भारत में है एक ऐसा गांव जहां रंग, गुलाल, गोबर से नहीं बिच्छुओं से खेली जाती है होली

Sanchita Pathak

भारत के सबसे महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है… रंगों का त्यौहार होली. लोग एक-दूसरे को रंग, गुलाल लगाकर होली मनाते हैं और तरह-तरह की मिठाइयों का लुत्फ़ उठाते हैं. ये त्यौहार अपने साथ ढेर सारा रोमांच लेकर आता है. रंग से पुते और मौज-मस्ती करते लोगों को देखकर रंग न खेलने वालों को भी ये त्यौहार खेलने का मन हो जाये!

होली से जुड़े कई रीति-रिवाज़ हैं. भारत के अलग-अलग क्षेत्र में होली से जुड़ी अलग-अलग मान्यताएं हैं. हमारे देश में इतनी अनेकता है कि त्यौहार मनाने के तौर-तरीक़ो में भिन्नता तो स्वभाविक है. उत्तर प्रदेश के बरसाना, नंदगांव और वृंदावन की लठ्ठमार होली को देखने के लिये दुनियाभर से लोग आते हैं. 

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होली में कहीं-कहीं उद्दंडता की हदें पार करते हुए लोग, कीचड़ और गोबर भी घोल कर डाल देते हैं. कहीं-कहीं गुलाल की जगह मिर्ची पाउडर भी फेंकते है.  

इन सबसे ज़्यादा ख़तरनाक एक तरीक़े से भारत में होली खेली जाती है. The Times of India की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश के इटावा ज़िला में एक ऐसा गांव है जहां होली के मौक़े पर बिच्छुओं की पूजा-अर्चना की जाती है और इनके साथ होली खेली जाती है. सैंथना गांव में लोगों को विश्वास है कि इस दिन बिच्छू उन्हें डंक नहीं मारते और वे बिच्छुओं के साथ अनोखे तरीक़े से होली मनाते हैं. 

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दैनिक जागरण के एक लेख के अनुसार, होली के पड़वा के अलावा सभी दिनों पर बिच्छू का ज़हर इस गांव के लोगों को चढ़ता है. ताखा तहसील क्षेत्र के सैंथना गांव के लोग होली के पड़वा के दिन, भैसान देवी के टीले पर चढ़ते हैं और टीले पर ही सैंकड़ों बिच्छू निकलते हैं. बिच्छुओं के बच्चे, बड़े, बूढ़े हाथ पर लेकर घूमते हैं. बिच्छू आराम से लोगों के शरीर पर रेंगते हैं और लोग भी बेफ़िक्र रहते हैं.  

फाग के गीतों के बीच ये सब चलता है. इधर बड़े-बूढ़े फाग के लोग गीत गाते हैं और उधर बाक़ी लोग बिच्छु हाथ पर लेकर रखते हैं. इस तरह की होली के पीछे की कहानी क्या है ये किसी को नहीं पता.  

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होलिका दहन के बाद फाग मंडली भैसान देवी टीले पर पहुंचती है. भैसन देवी की पूजा-अर्चना के बाद पत्थरों को फूल मालायें चढ़ाई जाती है. पत्थर हटाने के बाद ढेर सारे बिच्छू निकलते हैं. कुछ लोगों का मानना है कि फाग सुनकर बिच्छू बाहर निकलते हैं. फाग गाकर, बिच्छुओं को वहीं छोड़ दिया जाता है और गांववाले घर लौट जाते हैं.  

The Times of India से बात-चीत में ग्राम निवासी, कृष्ण प्रताप भदौरिया ने बताया कि अंग्रेज़ों के ज़माने से बिच्छु पूजन चल रहा है और आज तक बिच्छु के काटने की कोई घटना नहीं घटी.  

बिच्छू आमतौर पर तेज़ डंक मारते हैं और ये बेहद अविश्वसनीय है कि इस गांव के लोगों को बिच्छू डंक नहीं मारते.

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