मह लक़ा चंदा: दुनिया की पहली महिला जिसकी ग़ज़लों की किताब छपी थी

Sanchita Pathak

मिर्ज़ा हादी रुसवा ने उर्दू में पहला उपन्यास, ‘उमराव जान अदा’ लिखा था. कहते हैं इस उपन्यास की प्रेरणा रुसवा को हैदराबाद की एक शायरा थीं. नाम था मह लक़ा चंदा. भारत का दक्कनी क्षेत्र अपने सशक्त महिलाओं के लिए मशहूर है. इतिहास गवाह है कि चाहे कोई भी राज्यवंश हो, निज़ामी घराना हो, महिलाओं ने अपना सिक्का जमाया था. दक्कन की है एक नारीवादी, शिक्षित, ग़ज़ब की शायरा और फ़नकारा थीं मह लक़ा चंदा. 

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कौन थी मह लक़ा चंदा?

मह लक़ा चंदा एक 18वीं सदी की शायरा, कलाकार, कथक नर्तकी, योद्धा, शिक्षाविशारद और उस ज़माने की रईस महिलाओं में से एक थीं. The Heritage Lab के एक लेख के अनुसार, मह लक़ा ने अपनी जीवनी में लिखा था कि उनकी मां का नाम राज कुंवर बाई था जो अहमदाबाद से हैदराबाद में आ बसीं थीं. निज़ाम की राजधानी, औरंगाबाद जाते समय एक कहानीकारों के समूह से कुंवर बाई ने संगीत और नृत्य कौशल सीखा. अपनी ख़ूबसूरती और कला के कारण राज कुंवर बाई बहुत मशहूर थीं. 

औरंगाबाद में राज कुंवर बाई ने 50 साल की उम्र में नवाब बसालत ख़ान बहादुर से निकाह किया और उन दोनों की 4 अप्रैल, 1768 को एक बेटी हुई, नाम रखा गया चांद बीबी. चांद बीबी अपनी बड़ी बहन, मेहताबा बीबी और उसके पति, नवाब रुकन-उद-दौला के पास बड़ी हुई. रुकन-उद-दौला हैदराबाद के दूसरे निज़ाम, निज़ाम अली ख़ान के वज़ीर-ए-आज़म (प्रधानमंत्री) थे. 
मह लक़ा बाई एक रईस परिवार में बड़ी हुईं. शिक्षा से लेकर हर तरह की कला सीखने का मौक़ा उन्होंने गंवाया नहीं. मह लक़ा को हैदराबाद के सबसे अच्छे शिक्षकों से शिक्षा मिली.  

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कई ख़ासम-ख़ासों की ख़ास 

बीतते वक़्त के साथ मह लक़ां बाई लोगों के सामने अपनी कला-कौशल का प्रदर्शन करने लगी. मह लक़ा की मौजूदगी हैदराबाद के ख़ासम-ख़ास लोगों पर कोई जादू सा कर देता था. Live History India के एक लेख के अनुसार, मह लक़ा के हैदराबाद के 2 निज़ाम, 3 वज़ीर-ए-आज़म के अलावा कई अन्य लोगों से निजी संबंध थे.  

मह लक़ा का सबसे ख़ास रिश्ता था उस्ताद तानसेन के परपोते ख़ुशहाल ख़ान ‘अनूप’ से जिनसे मह लक़ा ने संगीत सीखा. ब्रज भाषा में गीत से लेकर, उत्तर भारत के राग तक, मह लक़ा को ख़ुशहाल ख़ान ने सब कुछ सिखाया. मह लक़ा ने ग़ज़ल और शेर लिखना उन्हीं से सीखा.  

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दीवान छपवाने वाली पहली शायरा 

मह लक़ा के दौर में दक्कनी उर्दू फ़ारसी उर्दू में बदल रही थी. मह लक़ा के लिखे ग़ज़लों में ये बात साफ़ झलकती है. मह लक़ा की लेखनी में इश्क़, वफ़ा से लेकर साज़िश, दुश्मनी का अक्स नज़र आता है. मह लक़ा के ग़ज़लों के साथ दर्शकों को कई बार दक्कनी कथक भी देखने को मिलता था. 

इतिहास में अपना दीवान (ग़ज़लों का संकलन) छपवाने वाली पहली महिला थीं मह लक़ा चंदा बाई. ‘गुलज़ार-ए-महलक़ा’ नाम से इस किताब को उन्होंने ही 1798 में लिखा था, किताब में 39 ग़ज़ल थे. 

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न ‘चंदा’ को तमअ जन्नत की ने ख़ौफ़-ए-जहन्नम है 
रहे है दो-जहाँ में हैदर-ए-कर्रार से मतलब 

-मह लक़ा चंदा

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निज़ाम के दरबार में अहम पदवी 

The Better India के एक लेख के अनुसार, 15 साल की उम्र में मह लक़ा ने निज़ाम के दरबार में प्रवेश किया. Live History India के लेख के मुताबिक़, अरस्तु जाह(दूसरे निज़ाम के वज़ीर-ए-आज़म) ने बहुत छोटे से ही मह लक़ा को दूसरे निज़ाम के नज़दीक पहुंचने के लिए तैयार किया था.  

1762 से 1803 के बीच हैदराबाद के निज़ाम रहे मीर निज़ाम अली खां ने चांद बीबी को मह लक़ा चंदा नाम दिया था.  
निज़ाम के दरबार की मुख्य अदाकारा होने के साथ ही मह लक़ा निज़ाम के साथ शिकार पर भी जाती थी. इससे भी चौंकाने वाली बात ये है कि मह लक़ा ने पुरुषों का भेष बनाकर निज़ाम के साथ 3 युद्ध भी लड़े थे! कहते हैं कि मह लक़ा भाले से कुशलता से लड़ी थीं. इसके अलावा महलक़ा को टेन्ट लगाना, तीरंदाज़ी, घुड़सवारी भी आती थी और ये उस समय की महिलाओं के लिए बहुत बड़ी बात थी.

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निज़ाम के दरबार में मह लक़ा को ‘ओमराह’ की पदवी भी मिली थी. इस पदवी का मतलब था कि वो न सिर्फ़ दरबार आ सकती थीं बल्कि निज़ाम को राजनैतिक मसलों पर सलाह भी दे सकती थीं.  

निज़ाम ने मह लक़ा की सुरक्षा के लिए 100 सिपाही तैनात किए थे. मह लक़ा पालकी में आवा-जाही करती और उनके आने से पहले रास्ता खाली करने के लिए मुनादी भी होती थी. एक तवायफ़ का ये रुतबा किसी भी सोच के परे है लेकिन मह लक़ा में ख़ूबियां ही इतनी थी कोई भी उनका कायल हो जाए.  

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एक मराठा योद्धा से थी सच्ची मोहब्बत 

मह लक़ा के कितने पुरुषों से घनिष्ठ संबंध थे ये बताना मुश्किल है लेकिन बहुत सारे पुरुष उन पर निर्भर थे. Live History India के एक लेख के अनुसार, मह लक़ा को राजा राव रंभा जयवंत बहादुर से मोहब्बत थी और उनके कई ग़ज़लों में इसका ज़िक्र मिलता है. राजा राव मराठाओं के ख़िलाफ़ लड़े थे और दूसरे निज़ाम के सेनाध्यक्ष थे. राजा राव ने ब्रिटिश और निज़ाम की सेना के साथ मिलकर टिपू सुल्तान के ख़िलाफ़ बी युद्ध लड़ा था.  

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आख़िरी शेर अली के नाम 

हैदराबाद के दरबार के कई राजनैतिक फ़ैसलों के पीछे मह लक़ा बाई का नीति-कौशल था लेकिन उनकी ज़िन्दगी में मज़हब की भी जगह थी. हर ग़ज़ल का आख़िरी शेर वो अली (शिया मत के पहले अमीर) के नाम लिखती थीं. हैदराबाद में पैगंबर मोहम्मद के दामाद मौला अली के दरगाह के लिए दिल खोल कर दान करती थी.  

लड़कियों को शिक्षित करने में योगदान 

The Better India के एक लेख की मानें तो मह लक़ा बाई का योगदान सिर्फ़ साहित्य तक ही सीमित नहीं था. वो एक बहुत बड़ी नारीवादी थीं और लड़कियों की शिक्षा के लिए उस ज़माने में 1 करोड़ रुपये दान किए थे. उन्होंने एक सांस्कृतिक सेन्टर भी बनवाया था जहां 300 लड़कियों और कई उस्ताद थे.

1824 में मह लक़ा चंदा की मृत्यु हो गई. मृत्यु के वक़्त मह लक़ा ने अपनी दौलत-शौहरत बेघर महिलाओं के लिए छोड़ी. उनकी जागीर का कुछ हिस्सा अभी के उस्मानिया यूनिवर्सिटी को दिया गया. यूनिवर्सिटी के पास ही एक बावड़ी है जो मह लक़ा ने बनवाई थी. 

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मह लक़ा एक रईस घराने में ज़रूर पली-बढ़ी लेकिन उन्होंने अपनी कला-कौशल से हैदराबाद रियासत में अपना रुतबा बनाया. दुख की बात है कि इस महिला का नाम आज इतिहास में कहीं गुम हो गया है.

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