लचित बरफुकन: वो वीर असमिया योद्धा जिसने मुग़लों को चटाई थी धूल, राक्षस बनकर लड़े थे सैनिक

Nripendra

Lachit Borphukan Story in Hindi: भारत में मुग़लों की कहानी 1526 से शुरू होती है, जब बाबर ने पहली पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हराया और दिल्ली में मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी. पीढ़ी दर पीढ़ी मुग़लों ने भारत पर राज किया और अपने साम्राज्य का विस्तार किया. साम्राज्य विस्तार के दौरान मुग़लों ने भारत-भूमि पर कत्लेआम मचाया और भारतीय राजाओं से लड़ाई की. 

वहीं, महाराणा प्रताप व वीर छत्रपति शिवाजी सहित कई भारतीय राजाओं व योद्धाओं ने मुग़लों को धूल चटाने का काम किया. मुग़लों से लड़ने वालों भारतीय योद्धाओं में कई ऐसे भी नाम हैं, जिनके बारे में अधिकांश लोगों को पता नहीं होगा. इस ख़ास लेख में हम एक ऐसे ही वीर योद्धा के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसने तेज़ दिमाग़ और चतुर रणनीति के ज़रिए मुग़लों को कड़ी टक्कर (Lachit Borphukan Who Fought Against Mughals) देने का काम किया था. 

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आइये, जानते हैं वीर असमिया योद्धा और अहोम वंश के सेनापति (Lachit Borphukan Story in Hindi) लचित बरफुकन के बारे में. 

अहोम वंश का वर्चस्व 

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Lachit Borphukan Story in Hindi: Assam in the Ahom Age नामक किताब से पता चलता है कि असम में अहोम वंश का वर्चस्व 13वीं सदी में हुआ था. अहोम योद्धा ने स्थानीय नागाओं को लड़ाई में हराया और असम को अपने कब्ज़े में ले लिया था. क़रीब 600 वर्षों तक अहोम वंश का असम पर शासन रहा. 

अहोम का धर्म बौद्ध, बांगफ़ी ताई और स्थानीय धर्म का मिला जुला रूप था. वहीं, अहोम राजा दूसरे धर्मों को भी सम्मान दिया करते थे और यही वजह थी कि 16वीं शताब्दी के दौरान यहां वैष्णव संप्रदाय का प्रभाव बढ़ने लगा था. 

अहोम वंश के अधीन असम एक स्वाधीन राज्य था, जिसकी सीमाएं पश्चिम में मनहा नदी से पूर्व में सादिया की पहाड़ियों तक क़रीब 600 मील तक फैली थीं.  

अहोम के सेनापति मोमाई-तामूली बरबरुआ और मुग़ल सेनापति अल्ला यार ख़ान के बीच 1639 में एक संधि हुई थी, जिसकी वजह से पश्चिम असम सहित गुवाहाटी मुग़लों के हाथ में आ गया था. 

वहीं, जब राजा जयध्वज सिंह अहोम के प्रमुख बने, तो उन्होंने मुगलों को मानस नदी के पार धकेल दिया था और ढाका के पास मुग़लियों क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया और साथ ही कई मुग़ल सैनिकों को बंदी बना लिया था. 

औरंगज़ेब का पूर्वी भारत को कब्ज़ाने का अभियान 

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Lachit Borphukan Story in Hindi: मुग़ल अपने साम्राज्य विस्तार के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. इसलिये, औरंगज़ेब ने पूर्वी भारत पर मुग़लिया झंडा फहराने के लिए जनरल मीर जुमला को अभियान पर भेजा. 

मीर जुमला ने कूच बिहार पर विजय प्राप्त करने के बाद असम की ओर कदम बढ़ाया और मनहा नदी और गुवाहाटी के बीच का इलाक़ा जीत लिया. इसके बाद 1662 को सिमलुगढ़ का क़िला और राजधानी गरगांव पर अपना अधिकार जमा लिया. 

इस कूच के बाद राजा जयध्वज सिंह पहाड़ियों में भागना पड़ा, लेकिन उनका संघर्ष जारी रहा. वहीं, जब मीर जुमला को ये एहसास हुआ कि यहां ज़्यादा वक़्त तक बने रहना ठीक नहीं, तो दोनों के बीच एक संधि हुई, जिसमें पश्चिमी असम मुग़लों को देना पड़ा और साथ ही अहोम राजा की तरफ़ से तीन लाख रुपए, 90 हाथी और सालाना बीस हाथी देने का का वादा किया गया. इसके बाद मीर जुमला राशिद ख़ान को जिम्मेदारी सौंप कर वापस चला गया.  

लचित बरफुकन का उदय और मुग़लों को धूल चटाने का काम 

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Lachit Borphukan and Mughals: अहोम राजा किसी भी तरह अपने क्षेत्र वापस लेना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपनी सेना को मज़बूत किया और पास के राजाओं से मदद की अपील की. इस बीच राजा जयध्वज सिंह का निधन हो गया और गद्दी पर बैठे चचेरे भाई चक्रध्वज सिंह. राजा चक्रध्वज सिंह ने मुग़लों से युद्ध करने का फ़ैसला किया और लेकिन मंत्रियों की सलाह पर और दो साल तैयारी करने की बात पर राज़ी हो गए. 

इस बीच नए सेनापति का चुनाव किया गया और इसके लिए लचित बरफुकन (Lachit Borphukan life in Hindi) को चुना गया, जो पूर्व सेनापति मोमाई-तामूली बरबरुआ के सबसे छोटे पुत्र थे. 

लचित बरफुकन एक वीर योद्धा थे और उनकी शिक्षा एक वरिष्ठ सामंत के जैसी हुई थी. अहोम सेनापति बनने से पहले वो राज्य के घुड़साल प्रमुख, वसूली प्रमुख व पुलिस प्रमुख रह चुके थे. 

20 अगस्त 1667 मुग़लों से अपनी ज़मीन छीनने के लिए अहोम सेना रवाना हुई और जल्द ही इटाखुली का किला और गुवाहाटी पर नियंत्रण कर लिया गया. मुग़लों को मनहा नदी के पार भेज दिया गया और साथ ही मुग़लों द्वारा बंदी बनाए गए अपने सैनिकों को रिहा और मुग़लों सरदारों को गिरफ़्तार कर लिया गया. 

जब इस बात का पता औरंगज़ेब को चला, तो वो चुप नहीं बैठा. उसने इस बार जय सिंह के पुत्र राजा राम सिंह को अहोम से लड़ने के लिए भेजा. 

अपनाई शिवाजी महाराज की गुरिल्ला नीति

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अपनी विशाल सेना लेकर मुग़लों की ओर से राजा राम सिंह रांगामाटी पर पहुंच गए. राम सिंह की सेना से लड़ने के लिए लचित बरफुकन ने दिमाग़ लगाया और सीधी लड़ाई की बजाय शिवाजी महाराज की गुरिल्ला नीति का प्रयोग किया. नौ सेना के युद्ध में अहोम सेना राजा राम सिंह की सेना पर भारी पड़ी, लेकिन अन्य दो युद्धों में राम सिंह ने विजय प्राप्त की. 

वहीं, सुआलकुची के पास अहोम ने सेना जल और थल दोनों जगह विजय प्राप्त की. वहीं, छापामार युद्ध नीति अपनाई और आधी रात में क़िलों में जाकर राम सिंह की सेना पर हमला करते रहे और नुकसान पहुंचाते रहे. 

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राक्षसों में वेश में लड़ी अहोम सेना 

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बरफुकन की युद्ध नीति देख रामा सिंह हैरान थे और एक पत्र भिजवाया, जिसमें कहा गया था कि ये एक चोर-डकैतों वाली हरक़त है और ऐसे युद्ध में शामिल होना हमारी शान के खिलाफ़ है. इसके जवाब में बरफुकन ने कहा था कि उनके पास 1 लाख राक्षस हैं.  

वहीं, इस बात को साबित करने के लिए बरफुकान ने अपने सैनिकों को राक्षस की वेशभूषा में रात्रि में भेजा. ये देख राजा राम सिंह ये मान गया था कि उनका मुक़ाबला राक्षसों से हो रहा है. 

दोनों ही एक-दुसरे को नुकसान पहुंचाने में लगे थे. बरफुकान अपनी सेना के साथ अपनी ख़ास युद्ध नीति के तहत राम सिंह की सेना को नुकसान पहुंचाते गए और राम भी पलटवार करने पर लगे हुए थे. 

शांति वार्ता 

इसके बाद दोनोंं के बीच शांति वार्ता शुरू हुई और लड़ाई कुछ दिनों तक टल गई. लेकिन, राजा चक्रध्वज सिंह के निधन और भाई माजू गोहेन के राजा बनने पर शांति वार्ता टूट गई और नए राजा ने फिर से युद्ध करने का फ़ैसला किया. 

दोनों के बीच युद्ध शुरू हुआ और क़रीब 10 हज़ार सैनिक खोने के बाद अहोम सेना सरायघाट के युद्ध में विजयी रही. 

बीमार होने के बावजूद युद्ध में उतर गए थे 

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दोनों के मध्य काफ़ी लंबा युद्ध चला और आरंभिक सफलता मुग़लों को मिली और जब अहोम सेना पीछे हटने लगी, तो बीमार चल रहे बरफुकान एक छोटी-सी नाव में युद्ध में कूद गए थे. उनकी हिम्मत देख अहोम सेना में फिर से जोश आ गया और उन्होंने राजा राम सिंह को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था. 

हालांकि, मुग़लों की कोशिश बरक़रार रही, लेकिन 1681 में अहोम सेना ने ऐतिहासिक जीत हासिल कर ली थी. लेकिन, आगे चलकर अहोम साम्राज्य को अंग्रेज़ों के सामने घुटने टेकने पड़ गए थे. 

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