सिनेमा हॉल में पॉपकॉर्न तो ख़ूब खाए होंगे, पर क्या पता है इसकी थिएटर तक पहुंचने की कहानी?

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Popcorn In Theatres History : अक्सर आपने थिएटर में लोगों को हाथों में पॉपकॉर्न टब लिए अपनी सीटों पर मूवी एन्जॉय करते हुए देखा होगा. आपने ख़ुद भी थिएटर में बैठकर मूवी देखते हुए पॉपकॉर्न के चटखारे लिए होंगे. पर क्या आपने कभी सोचा है कि दुनिया में खाने की तमाम वैरायटी होने के बावजूद लोग थिएटर में सिर्फ़ पॉपकॉर्न ही क्यूं प्रेफ़र करते हैं?

आइए आपको इसके बारे में डीटेल में जानकारी देते हैं कि पॉपकॉर्न आखिर थिएटर में पहुंचा कैसे?

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कैसे हुआ पॉपकॉर्न मशीन का आविष्कार?

साल 1885 में चार्ल्स क्रेटर्स ने पहली बिज़नेस पॉपकॉर्न मशीन का आविष्कार किया था. इस मशीन में एक स्टीम इंजन था. इस इंजन के साथ मूंगफ़ली से भरी हुई कार्ट जुड़ी थी. इस मशीन से बटर वाले स्वादिष्ट पॉपकॉर्न बनते थे. फिर इसके बाद एफ डब्ल्यू रुकेहाइम ने कैरेमल पॉपकॉर्न बनाने वाली पॉपकॉर्न मशीन बनाई. इस मशीन से बने पॉपकॉर्न का स्वाद तो एक नंबर था, लेकिन ये काफ़ी चिपचिपे थे. इस वजह से ये मशीन ठप्प पड़ गई. लेकिन Ruceckheim यहां रुके नहीं और उन्होंने कैरेमल पॉपकॉर्न को डिब्बे में पैक करके बेचना शुरू कर दिया. इसका नाम उन्होंने क्रैकर जैक रखा. डिब्बे में पैक पॉपकॉर्न लोगों के आकर्षण का केंद्र बने और उस दौरान इनकी ख़ूब बिक्री हुई. ये पूरे अमेरिका में पॉपुलर हो गए.

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थिएटर बिज़नेस पड़ने लगा ठप्प

1920 तक अमेरिका में पॉपकॉर्न ने अपनी अच्छी ख़ासी पहचान बना ली थी. ये सड़क से लेकर पार्क या इवेंट हर जगह दिखाई देते थे. लेकिन उस दौरान ये थिएटर में नहीं बेचे जाते थे. उस दौरान थिएटर में स्नैक्स खाने का प्रचलन नहीं था. फिर 1920 में सिनेमा जगत में क्रांति आई. उस वक़्त निकलोडियन ने जनता को इंडोर एग्ज़ीबिशन स्पेस से परिचय कराया. इसके ज़रिए घर के अंदर कहीं भी मोशन पिक्चर देखी जा सकती थी. ये धीरे-धीरे बाज़ार में छाने लगा, जिस वजह से थिएटर का बिज़नेस घाटे में जाने लगा. इस कॉम्पिटिशन को देखते हुए मूवी थिएटर के मालिक ने थिएटर को नया रूप दिया और मूवी थिएटर को काफ़ी आलीशान बनाने के लिए झूमर, डेकोरेशन का सामान आदि लटका दिया. ताकि दर्शकों को थिएटर में एक लग्ज़री एक्सपीरियंस मिले.

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ऐसे थिएटर तक पहुंचा पॉपकॉर्न

थिएटर के मालिक ने थिएटर्स को एक आलीशान लुक दिया था, इसलिए वो यहां खान-पान की व्यवस्था करके गन्दगी नहीं चाहते थे. धीरे-धीरे थिएटर में मूवी देखने का क्रेज़ लोगों के सिर चढ़ कर बोलने लगा और थिएटर के बाहर लोगों की लंबी कतारें लगने लगीं. फिर 1929 में अमेरिका में आर्थिक मंदी का दौर आया. इस दौर थिएटर का बिज़नेस भी नीचे गया और उसमें ताले पड़ने शुरू हो गए. हालांकि, इस दौरान सबसे ज़्यादा जिनके चेहरे पर मुस्कान बरकरार थी, वो थिएटर के बाहर पॉपकॉर्न बेच रहे लोग थे. इस दौरान बड़े-बड़े बिज़नेस मैन तक ने पॉपकॉर्न बेचा और उम्मीद से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने लगे. थिएटर के मालिक ने थिएटर्स को एक आलीशान लुक दिया था, इसलिए वो यहां खान-पान की व्यवस्था करके गन्दगी नहीं चाहते थे. धीरे-धीरे थिएटर में मूवी देखने का क्रेज़ लोगों के सिर चढ़ कर बोलने लगा और थिएटर के बाहर लोगों की लंबी कतारें लगने लगीं.

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थिएटर के लिए पॉपकॉर्न बना गेम चेंजर

थिएटर के बाहर सबसे ज़्यादा जिस शख्स ने मुनाफ़ा कमाया वो था Kammons Wilson. परिवार में तंगी होने के चलते 17 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़कर विलसन ने थिएटर के बाहर पॉपकॉर्न का ठेला लगा लिया. उन्होंने 50 डॉलर की पॉपकॉर्न मशीन खरीदी और पॉपकॉर्न का ठेला लगाकर इससे वो धीरे-धीरे काफ़ी मुनाफ़ा कमाने लगे. यहां तक उनकी कमाई थिएटर के मालिक से ज़्यादा होने लगी. इसे देखते हुए थिएटर के मालिक ने विल्सन को हटाकर वहां अपना ख़ुद का ठेला लगा लिया. ये बात विल्सन को चुभ गई. धीरे-धीरे उन्होंने ख़ूब मेहनत की और अपनी कंपनी Holiday Inn की स्थापना की. उस दौरान उन्होंने इस थिएटर को भी ख़रीदा, जहां से उन्हें हटाया गया था.

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ऐसे मारी थिएटर के अन्दर एंट्री

सबसे पहले थिएटर के अंदर पॉपकॉर्न की रेहड़ी आर जे मेक्केना ने लगानी शुरू की थी. लोगों को ये कांसेप्ट पसंद आया और थिएटर के अन्दर पॉपकॉर्न की ख़ूब बिक्री होने लगी. 1938 तक छोटे थिएटरों में ही पॉपकॉर्न देखने को मिलता था. बड़े थिएटर घाटे में जा रहे थे. छोटे थिएटरों को मुनाफ़े में जाते देख उन्होंने भी इस फंडे को अपना लिया. गुज़रते वक़्त के साथ लोगों को पॉपकॉर्न का ऐसा चस्का चढ़ा कि इसके दाम बढ़ते गए, लेकिन लोगों ने इसे खाना नहीं छोड़ा. आज भी काफ़ी महंगे दामों में थिएटर्स में पॉपकॉर्न बिकते हैं, लेकिन फिर भी लोग इन्हें ख़ूब ख़रीद कर खाते हैं.

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