स्कूल हों या फिर कॉलेज के दिन, एग्ज़ाम की पनौती से कोई नहीं बच सका है. हम ख़ुद इस झिलाऊ ज़िंदगी से गुज़रे हैं. बस अंतर ये था कि हम थे निहायती लुल्ल स्टुडेंट. ज़िंदगी में B कॉपी मांगना तो दूर, हमसे कभी पहली ही कॉपी भरी न गई. 3 घंटे का एग्ज़ाम 2 घंटे से ज़्यादा झेला न गया.
लेकिन भसड़ ये थी कि एग्ज़ाम चाहें तो 2 घंटे में निपटाओ या 2 मिनट में उसकी मैगी बनाओ, टीचर को घंटा फ़र्क नहीं पड़ता. बस बैठना पूरा 3 घंटे ही पड़ेगा. ऐसे में बाकी का बचा टाइम हम कैसे पास करते थे, आज इसी पर बात होगी.
तो चलिए फिर पुरानी यादों की कुछ उलटियां मारते हैं-
1. कॉपी की बदसूरती दूर करना
बाख़ुदा बता रहा हूं कि एग्ज़ाम में मैंने जो कुछ लिखा, वो दोबारा मुझसे ही पढ़ा न गया. ख़ासतौर से जो जवाब नहीं आता था, उसमें तो मैं जानबूझकर छीछालेदर मचाता था. हमसे काले पेन से हैडिंग लिखवाना तो मतलब विमल पान-मसाले में केसर की उम्मीद करने जैसा था. हालांकि, ख़ाली वक़्त में हम अपनी ही नीली हैडिंग को दोबारा काले से रंगने बैठ जाते थे. बस आख़िरी रिज़ल्ट में हमारा यही टाइम पास नंबरों पर स्याही फेर देता था.
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2. टीचर का मुंह ताड़ते हुए उनकी ज़िंदगी के बारे में सोचना
आप भले ही सालभर अपने टीचर की शक़्ल देखना पसंद न करें, मगर एग्ज़ाम के ख़ाली वक़्त में आप उनका चेहरा देखकर एकदम डीप थिंकर बन जाते हैं. मतलब हम सोच में पड़ जाते हैं कि जो आदमी आधे घंटे के पीरियड में हमारे इत्ता चरस बो देता है, उसके ख़ुद के बच्चे कित्ता उकताए होंगे.
3. ऐसे चेहरे बनाना जैसे मैंने एग्ज़ाम में सब गुड़-गोबर कर दिया है
देखो, हम कित्ते ही जाहिल हों, लेकिन क्लास में हमसे भी निकम्मे लौंडे मौजूद रहते हैं. ऐसे में आप बार-बार मुंह को ऐसे ऐठते रहो, मानो पेपर नहीं ससुरी ज़िंदगी ख़राब हो रही है. क्योंकि अगर उन्हें मालूम पड़ गया कि आपका पेपर ख़त्म, तो वो किसी शिकारी माफ़िक आप पर हमलावर हो जाते हैं. आप चाहें जितना कहें कि आपने मन से ही ग़लत-सलत लिखा है, लेकिन उनका एक ही जवाब रहेगा. ‘भाई तुम ग़लत ही बता दो, हम लिख लेंगे.’
4. काश! हमारा क्रश एक बार इधर देख ले?
हम बार-बार उन्हें देखते हैं. काले-नीले-हरे पेन से काम करने वाली वो लड़की, जो बाकायदा स्केल से कॉपी पर स्पेस खींचती थी. हर जवाब के बाद काले पेन से डबल अंडरलाइन भी करती थी. बस हमको ही लाइन नहीं देती थी. अपन तो काला पेन भी इसीलिए ले जाते थे कि कभी तो उसका पेन ख़राब होगा. और वो दिल न सही, पेन ही मांग लेगी. मगर क़सम आशिकों के टूटे दिल की, न उसका कमबख़्त पेन ख़राब हुआ और न ही कभी उसका लड़कों को लेकर टेस्ट. ज़िंदगी में उसने इधर न देखा.
5. फर्ज़ी पेन लड़ाना
अब इश्क़ नहीं तो जंग ही सही. हक़ीक़त में लड़ने से कूटे जाने का डर था, इसलिए फर्ज़ी पेन लड़ाते थे. वो भी एकदम WWE माफ़िक. मोटा पेन है तो उसे बिग शो और छोटा पेन को तो द रॉक. बस लगे लड़ाने. हालांकि, जब ये एहसास होता था कि पूरा क्लास आपको ये अक्ल ‘मंदी’ का काम करते देख रहा है, तो भरपूर ज़िल्लत महसूस होती थी.
6. आसपास पर्ची ढूंढना
आप सोचेंगे कि जब पेपर हो गया, तब पर्ची का क्या काम? भइया, लौंडे बहुत कलाकार होते हैं. जैसे-जैसे पेपर ख़त्म होता है, पर्चियां इधर-उधर फेंके जाने का सिलसिला भी शुरू हो जाता है. आपको ख़बर भी नहीं लगेगी कि दुई-चार मुड़ी हुई पर्ची आपके जूते के पास सरक आएंगी. फिर उस दिन आप कित्ते ही ईमानदार बन लीजिए, मगर शिक्षक महोदय सिर्फ़ आपके सालभर के गुनाहों का हिसाब लेंगे. अच्छा यही है खाली वक़्त में अन्ना एकदम चौकन्ना हो ले.
7. वॉटर और टॉयलेट भी अच्छा टाइम पास होते हैंं
पानी पी आएं, टॉयलेट हो आएं. भले ही न लगी हो, मगर आप जाते हैं. उस वक़्त जानबूझकर हम सबसे दूर वाला नल और बॉथरूम चुनते हैं. ससुरा पांचवे फ़्लोर पर एग्ज़ाम है, और ग्राउंड फ़्लोर पर टहलते हुए आ जाते हैं. काहे कि एग्ज़ाम टाइम में जब कोई बाहर नहीं होता है, तब टहलने का मज़ा ही अलग होता है. हर क्लास में झांकते हुए जाना और बाहर खड़े हर टीचर को स्माइल कर उनका ख़ून जलाने की मौज ही अलग होती है.
8. अगर क्लास में हमला हो जाए तो मैं कैसे भागूंगा?
बैठे-बैठे अचानक ही आपका ध्यान क्लास के दो दरवाज़ों और एक खिड़की पर जाता है. आप सोचते हैं कि अगर कहीं क्लास में सामने वाले दरवाज़े से हमला हुआ, तो अपन पीछे दरवाज़े से भाग निकलेंगे. ओह शिट! पीछे वाले दरवाज़े से भी आए तब? अच्छा तो अपन खिड़की से फांद जाएंगे. ओह दोबारा शिट! खिड़की पर तो जंगला लगा है. वो भी लोहे का. ये कैसा स्कूल है, हमारी सुरक्षा का ज़रा भी ध्यान नहीं.
9. गर्दन घुमा घुमाकर अपने जैसों की तलाश करना
जब बोरियत चरम पर पहुंंच जाती है, तब गर्दन घुमा घुमाकर देखना किस किस का काम हो चुका है. मानो मैं कोई कुख़्यात अपराधी हूं, जो अपने जैसे बदमाशों का गैंग बनाना चाह रहा हूं. बस फिर आंखों ही आंखों में सवाल होते हैं. हो गया भाई? आंखें बड़ी और मुंडी हलकी टेढ़ी, मतलब हां. आंखें मिचमिचा के छोटी, मतलब अभी कसर रह गई है. कैसा गया ये पूछने की ज़रूरत नहीं है. काहे कि भाई ने पढ़ाई हमारे ही साथ की थी, जो कभी की नहीं थी.
10. बार-बार समय पूछना
ये सबसे अंतिम क्षण होते हैं. जब लास्ट घंटी बजने में 20-25 मिनट रह जाएं और कमर और कूल्हे आपके बैठे-बैठे पिराने लगें. तब हर दो मिनट में गुरू जी से टाइम ऐसे पूछते हैं, मानो अंबानी जैसन आपकी हर मिनट 1.5 करोड़ की कमाई हो. वो मास्टर भी जो आपको सालभर क्लास से भगाने पर आमादा रहता था, आज आपके गिड़गिड़ाने पर भी 15 मिनट पहले छोड़ने को तैयार नहीं होता.
ख़ैर ये तो थी हमारी देखी-करी हरकतें. अगर आप भी कुछ नायाब टाइम पास करते थे, तो हमसे शेयर करें. काहे कि हम तब भी ख़लिहर थे और आज भी. आपकी हर बात बड़े चाव से पड़ेंगे.