वैसे तो इतिहासकारों अथवा राजनीतिक पंडितों का भारतीय राजनीति में किसी भी शख़्स को लेकर कभी भी स्पष्ट और एक मत रहा ही नहीं. फिर भी उनके द्वारा किये गये कार्यों और योगदान को देखकर लोग अपने दिमाग में एक धारणा विकसित कर लेते हैं. देश में आज़ादी से पहले और बाद में एक से बढ़कर एक नेता हुए हैं, जिन्हें आज भी लोग याद रखते हैं. भले ही उनके अच्छे कामों को लेकर हो या फिर उनके विवादों को लेकर. उन्हीं नामों में से एक नाम ऐसा है, जो शायद अपने योगदान से अधिक विवादों के लिए ही जाना जाता है.
संजय गांधी कांग्रेस के तेज़-तर्रार नेता होने के साथ-साथ नेहरू-गांधी परिवार की राजनीतिक विरासत के वारिस भी थे. कम उम्र में ही उनकी राजनीतिक सक्रियता से लोगों को अंदाज़ा हो गया था कि संजय ही इंदिरा गांधी की राजनीतिक विरासत को संभालेंगे. मगर उनकी अकाल मृत्यु ने उस वक़्त के पूरे राजनीतिक परिदृश्य को बदल कर रख दिया.
हालांकि, वो जब तक जीवित रहे, भारतीय राजनीति में एक सशक्त शख़्सियत के रूप में रहे. संजय गांधी के पास न तो कोई मंत्रालय था और न ही कोई सरकारी पद, फिर भी वो सरकार में जितनी पकड़ रखते थे, ये उनकी कार्यकुशलता को ही दर्शाता है.
इंदिरा के समांतर संजय की राजनैतिक सत्ता
कई इतिहासकारों का मानना है कि संजय जितने कद्दावर नेता थे, उतनी ही विवादित हस्ती भी. विवादों की फेहरिस्त में ऐसे कई मौके हैं, जहां पर संजय का राजनीतिक चरित्र काफ़ी नकारात्मक प्रतीत होता है. इतिहासकारों ने संजय को एक ऐसे तानाशाही व्यक्तित्व के तौर पर प्रस्तुत किया है, जिसने भारत के लोकतंत्र को तानाशाही में बदल दिया. उनकी तानाशाही का आलम इस कदर था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपने फ़ैसले से कई बार पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा था. ऐसा कहा जाता है कि संजय, इंदिरा गांधी के बरक्श अपनी एक समानांतर सत्ता चलाते थे. इनके फ़ैसलों के आगे इंदिरा गांधी को भी झुकना पड़ता था. इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब तात्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने संजय के किसी आदेश को मानने से इनकार कर दिया, तब संजय ने उन्हें हटाकर अपने करीबी विद्या चरण शुक्ल को नियुक्त किया था.
आपातकाल और संजय गांधी
संजय की सबसे विवादित तस्वीर आपातकाल के दौर में उभर कर आती है. संजय गांधी को आपातकाल के लिए सबसे बड़ा खलनायक माना जाता है. जब साल 1974 में विपक्ष के विरोध-प्रदर्शन और हड़ताल से पूरे देश की राजनीतिक व्यवस्था चरमरा गई. इंदिरा सरकार पूरी तरह से संकटों से घिर गई. तब ऐसा कहा जाता है कि ‘आपातकाल’ जैसे शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले संजय गांधी ने ही किया था. कुछ रिपोर्ट्स में यह भी कहा गया है कि संजय गांधी काफ़ी लंबे समय तक आपातकाल रखने के मूड में थे. इतना ही नहीं, आपातकाल के समय इंदिरा के बजाय संजय ही सरकार चला रहे थे.
हालांकि, उनके विवादों की फे़हरिस्त भले ही काफ़ी लंबी हो, उनका योगदान भी भारतीय राजनीति में कम नहीं है. उन्होंने भारत में कुछ ऐसे साहसिक कदम उठाए, जिनकी सराहना आज भी राजनीतिक पंडित और इतिहासकार करते नहीं थकते.
जनसंख्या को नियंत्रित करने का अचूक प्लान
संजय गांधी के विवादों के इतर बात की जाए तो, उन्हें जिन योगदानों के लिए याद किया जाता है, उनमें से पुरुष नसबंदी कार्यक्रम भी है. साल 1976 में संजय गांधी ने बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण पाने के लिए नसबंदी योजना शुरू की. हालांकि, इस योजना पर कई इतिहासकारों और विशेषज्ञों की राय अलग-अलग रही है. संजय गांधी के परिवार नियोजन की मुहिम की वजह से ही सरकार नसबंदी को सख्ती से अमल में लाने के लिए मजबूर हुई थी.
आम आदमी की कार मारुति 800
आज जिस मारुति को एक मिडिल क्लास भारतीय की पहचान के रूप में देखा जाता है, उसके पीछे संजय गांधी का ही दिमाग माना जाता है. भारत में संजय गांधी को आम आदमी की कार, मारुति 800 लाने का श्रेय जाता है. उन्होंने ही इसके लिए लाइसेंस लिया था. हालांकि, इस गाड़ी के बनकर तैयार होने से पहले ही संजय गांधी इस दुनिया से रुख़सत हो गये थे .
बहरहाल, संजय गांधी की मौत भी उनके जीवन की तरह ही काफ़ी विवादित रही. अगर दुनिया उनके विवादों को याद रखती है, तो उनके योगदान को भी याद रखना होगा. उनके जीवन से जुड़ी जितनी भी बातें थी, वो उनकी मौत के साथ ही इतिहास के पन्नों में दफ़न हो गईं. संजय का जीवन इतना छोटा और अजीबोगरीब था कि इतिहासकारों ने कभी उसे अच्छे से समेटने की कोशिश ही नहीं की. शायद यही वजह है कि उनकी ज़िंदगी से जुड़ी बहुत कम ही किताबें देखने को मिलती हैं.
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