वो आंटी रोज़ाना बस के 20 से 25 मिनट के सफ़र में मेरे साथ अपने दिल की बातें शेयर करती हैं

Kratika Nigam

कभी-कभी मुझे बस से जाने में बहुत खलता है. मन नहीं करता कौन गर्मी की धूप में बस के पीछे भागे या सर्दी के कोहरे में बस स्टैंड पर बस का इंतज़ार करे. मगर फिर टिफ़िन पैक होता है और बैग उठाती हूं निकल पड़ती हूं अपने बस के सफ़र पर. दिल्ली की बस और मेट्रो का ये सफ़र करने में भले ही मुझे कितना आलस आए, लेकिन जब मैं इस सफ़र में होती हूं तो कुछ अलग ही होती हूं. ये सफ़र मेरी ज़िंदगी में मुझे एक लड़की के तौर पर काफ़ी कुछ समझने का मौक़ा देता है. 

चलिए अब आज का अनुभव बताती हूं, जो मेरे साथ रोज़ ही होता है. रोज़ मुझे महिपालपुर से वसंतकुंज तक एक आंटी बस में मिलती हैं, जो दिल्ली पुलिस में इंस्पेक्टर हैं. पहले तो मेरी उनसे बात नहीं होती थी, लेकिन जब आप रोज़ सफ़र करते हों हो और आपके सफ़र के साथी एक होते हैं तो बातचीत होने लग जाती है. ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ है. मुझे उन आंटी का व्यक्तित्व बहुत अच्छा लगता है, हाथ में लेदर का बैग, जूते से लेकर सलवार सूट सब मैचिंग का, उनकी उंगलियों में लाल कलर की नेल पॉलिश और हाफ़ पिनअप बाल.  

धीरे-धीरे वो आंटी मुझसे बात करने लगीं, पहले दिन सिर्फ़ हाय-हैलो हुई. दूसरे दिन थोड़ी बातचीत आगे बढ़ी. ऐसे करते-करते आंटी ने मुझे अपने घर के बारे में बताना शुरू किया कि उनके दो बच्चे हैं एक लड़का और लड़की. लड़की की शादी हो गई है, लेकिन उसकी सास अच्छी नहीं है और आंटी की सास भी आज शादी के 50 साल के बाद भी उन्हें परेशान करती हैं. वो कितनी अच्छी जॉब पर हैं उसके बाद भी उनकी ससुराल में कोई वैल्यू नहीं है. सुबह से शाम तक नौकरी करने के बाद जब घर जाती हैं आज भी अपने बच्चों के लिए खाना बनाती हैं.

आंटी की उम्र कुछ 60 साल होगी. इस उम्र में भी वो अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा रही हैं. उनकी बातें सुनते-सुनते एक बार दिल में आता है कह दूं कि आंटी मुझे ये सब क्यों बता रही हैं? लेकिन बताते वक़्त उनके चेहरे पर जो सुकून होता है, जो हल्कापन होता है उसे देखकर रुक जाती हूं. उनकी उन बातों में जिनसे मेरा लेना-देना भी नहीं है उनमें अपना पूरा 20 से 25 मिनट का सफ़र तय कर लेती हूं. उन गानों को नज़रअंदाज़ कर देती हूं जो मुझे सुकून देते हैं, जिनसे मुझे सारा दिन काम करने की एनर्जी मिलती है.

ऐसा इसलिए कर पाती हूं शायद मुझे अपने गानों से ज़्यादा आंटी की उन बातों को सुनना अच्छा लगता है, जिनका मैं हल तो नहीं दे सकती, लेकिन आंटी को सुकून ज़रूर दे पाती हूं क्योंकि उनके बच्चे सुबह-सुबह निकल जाते हैं और रात में देर से आते हैं तो आंटी अपने बच्चों से दिल की बात कह ही नहीं पाती होंगी शायद इसलिए वो मुझे बताती हैं.

उस कुछ देर के सफ़र के दौरान वो मुझे कभी टॉफ़ी तो कभी मूंगफली देती हैं और हम खाते-खाते बातें करते-करते अपने-अपने बस स्टैंड पहुंच जाते हैं. मगर आंटी जहां एक ओर मुझे हिम्मत देती हैं वहीं दूसरी ओर मुझे ये भी सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि सिर्फ़ मां हैं वो इसलिए रात 11 बजे घर पहुंचने पर भी खाना बनाती हैं? क्या उनके बच्चे उन्हें खाना बनाकर नहीं दे सकते? ख़ैर, ये बातें तो लोगों को समझने में वक़्त लगेगा.

मगर मुझे ख़ुशी इस बात की है कि भले ही मैं उनका बोझ हल्का नहीं कर सकती, लेकिन उनका मन हल्का ज़रूर कर पाती हूं.

ऐसी ही कोई आंटी या अंकल आपको भी कभी मिले हैं, तो उनके बारे में हमें कमेंट बॉक्स में बताइएगा ज़रूर.   

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Illustrated By: Muskan Baldodia

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