भारत का वो सन्यासी, जिसके ज्ञान ने विश्व को दी भारतीय संस्कृति की अनमोल सौगात

Shankar

विवेकानंद, भारतीय इतिहास का एक ऐसा नाम जिसने भारतीय संस्कृति को न सिर्फ़ विश्व स्तर पर पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई, बल्कि एक सन्यासी के रूप में आजीवन देश और समाज की भलाई के लिए काम किया. इतना ही नहीं, स्वामी विवेकानंद अपने ज्ञान के बल पर विश्व विजेता भी बने. सच कहूं तो, अपने ज्ञान के प्रकाश से पूरी दुनिया को रौशन करने वाले स्वामी विवेकानंद एक ऐसी शख़्सियत थे, जिन्होंने बहुत ही कम उम्र में संसार को वो शिक्षा और संदेश दिया, जिसे दशकों बाद आज भी लोग अपने लिए आदर्श मानते हैं.

विवेकानंद हिंदुस्तान के ऐसे सन्यासी थे, जिनके अनुयायी देश ही नहीं, बल्कि विश्व के हर कोने में नज़र आते हैं. इनके आकर्षण से न तब कोई बच पाया था और न ही आज कोई बच सकता है. स्वामी विवेकानंद का जन्म कोलकाता में हुआ था. इन डेढ़ सौ साल में वक़्त बदल गया, विरासत और सियासत बदल गई. एक गुलाम मुल्क, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बन गया, लेकिन कुछ नहीं बदला तो हिंदुस्तानी संस्कृति की वो प्रकृति, वसुधैव कुटुम्बकम की वो अलख, जो 123 साल पहले हुई धर्म विश्व संसद में विवेकानंद की आवाज़ों से जली थी.

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शिकागो के धर्म सम्मेलन में विवेकानंद का ओजस्वी भाषण

11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन शुरू हुआ. स्वामी विवेकानंद का नाम पुकारा गया. घबराते हुए स्वामी विवेकानंद मंच पर पहुंचे. वो इतने सकुचाए हुए थे कि लोगों को लगा कि भारत से आया ये नौजवान संन्यासी कुछ बोल नहीं पाएगा. मगर तभी स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु का ध्यान किया और उसके बाद उनके मुंह से जो शब्द निकला, उससे पूरे हॉल में कुछ पल के लिए सन्नाटा फैल गया और फिर जब तालियां बजीं, तो पूरे दो मिनट तक आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो में बजती रहीं. विवेकानंद के पहले शब्द थे- अमेरिका के भाइयो और बहनो. इसके बाद स्वामी विवेकानंद ने ज्ञान से भरा ऐसा ओजस्वी भाषण दिया जो इतिहास बन गया. अमेरिकी मीडिया ने उन्हें भारत से आया ‘तूफानी संन्यासी’, ‘दैवीय वक्ता’ और ‘पश्चिमी दुनिया के लिए भारतीय ज्ञान का दूत’ जैसे शब्दों से सम्मानित किया.

हिंदू धर्म के प्रतीक के रूप में गेरुए कपड़े से दुनिया का परिचय

विवेकानंद के भाषण से पहले शायद ही दुनिया इस बात से वाकिफ़ थी कि गेरुआ कपड़ा हिंदुओं के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल होता है. ये विवेकानंद ही थे, जिन्होंने गेरुए कपड़े से अमेरिका सहित पूरी दुनिया का परिचय हिंदू के प्रतीक के तौर पर कराया. उनके भाषण का असर ऐसा हुआ कि गेरुए कपड़े अमेरिकी फैशन में शुमार किये जाने लगे. हालांकि, उनके भाषण से पहले लोग ये ज़रूर जानते थे कि भारत एक गरीब देश है, मगर अध्यात्मिक ज्ञान के तौर पर इतना ज़्यादा अमीर है, इस बात को वो भाषण के बाद ही जान पाये.

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि धर्म सम्मेलन में विवेकानंद को शामिल होने का न्योता नहीं मिला था. इसमें विश्व प्रसिद्ध संस्थाओं के प्रतिनिधियों को ही सिर्फ़ बोलने का मौका मिला था. हालांकि, बाद में हावर्ड यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर की मदद से उन्हें यह अवसर मिल पाया.

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विवेकानंद का बचपन

12 जनवरी 1863 को कोलकाता हाईकोर्ट में वकील विश्वनाथ दत्त और उनकी पत्नी भुवनेश्वरी देवी के घर में नरेंद्रनाथ का जन्म हुआ था. विश्वनाथ दत्त प्रगतिशील सोच वाले शख़्स थे, जबकि भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की थीं. नरेंद्रनाथ के जीवन पर माता और पिता दोनों की सोच का गहरा असर पड़ा. नरेंद्रनाथ की शुरू से ही धर्म, दर्शन, साहित्य, इतिहास और विज्ञान हर विषय में रुचि थी. नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी. इसके लिए वे पहले ब्रह्म समाज में गए लेकिन वहां उन्हें संतोष नहीं हुआ. वो बचपन से ही ईश्वर को तलाश रहे थे.

नरेंद्र का सवाल- क्या ईश्वर को देखा जा सकता है

नरेंद्र नाथ अपनी माता के धार्मिक विचारों से ज़्यादा ही प्रभावित थे, इसलिए वे बचपन से ही अपनी मां से ये सवाल किया करते थे कि क्या ईश्वर को देखा जा सकता है. मगर नरेंद्र को इसका जवाब नहीं मिल पाता था.

नरेंद्रनाथ की गुरु रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात

नरेंद्रनाथ अगर ज्ञान के भंडार वाले स्वामी विवेकानंद थे, तो उनके गुरु रामकृष्ण ज्ञान के पुंज थे. रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र अपने सवाल का जवाब पाने के विचार से उनके पास कोलकाता के कालीघाट गये. उन्होंने रामकृष्ण जी से प्रश्न किया- क्या ईश्वर को देखा जा सकता है? रामकृष्ण परमहंस ने जवाब दिया- हां मैंने देखा है, मैं भगवान को उतना ही साफ़ देख सकता हूं, जितना कि तुम्हें देख रहा हूं. फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि मैं उन्हें तुमसे ज़्यादा गहराई से महसूस कर सकता हूं. इस बात से नरेंद्रनाथ इतने प्रभावित हुए कि वो उसी पल उन्हें अपना गुरू मान बैठे.

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जब विदेशी महिला ने स्वामी जी से कहा- मैं आपसे शादी करना चाहती हूं

एक बार विदेशी महिला स्वामी जी से बोली- मैं आपसे शादी करना चाहती हूं. विवेकानंद बोले- मुझसे क्यों? क्या आप जानती नहीं की मैं एक सन्यासी हूं? महिला ने कहा- मैं आपके जैसा ही गौरवशाली, सुशील और तेजस्वी पुत्र चाहती हूं और वो तब ही संभव होगा, जब आप मुझसे विवाह करेंगे. विवेकानंद बोले- हमारी शादी तो संभव नहीं है, परन्तु हां एक उपाय है. आज से मैं ही आपका पुत्र बन जाता हूं और आप मेरी मां बन जाओ. आपको मेरे जैसा बेटा मिल जाएगा. इतना सुनते ही वो औरत विवेकानंद के चरणों में गिर गयी और बोली कि आप साक्षात ईश्वर का रूप हैं.

जब एक वेश्या ने विवेकानंद को कराया था संन्यासी होने का एहसास

बात उस समय की है जब स्वामी विवेकानंद जयपुर के पास एक छोटी-सी रियासत के मेहमान बने. कुछ दिन वहां रहने के बाद जब स्वामी जी के विदा लेने का समय आया तो रियासत के राजा ने उनके लिए एक समारोह रखा. इस आयोजन में राज्य की सबसे बड़ी वेश्या को भी बुलाया गया. वेश्याओं को बुलाते समय शायद राजा यह भूल गए थे कि एक संन्यासी के लिए आयोजित किए गये समारोह में वेश्याओं का आना सही नहीं है. विवेकानंद भी उस समय युवा थे, अपरिपक्व थे. वे अभी पूर्ण रूप से संन्यासी बने नहीं थे, बल्कि उस मार्ग पर चल रहे थे. अपने धर्म को बचाने के लिए स्वामी विवेकानंद ने अपने कमरे के दरवाज़े को बंद कर लिया. लेकिन जब उनके कानों में एक मधूर सन्यासी गीत की आवाज़ गई, तो उनसे रहा नहीं गया. उन्हें यह महसूस हो रहा था कि वेश्या रोते हुए यह गीत गा रही है. उन्हें अपने ऊपर बहुत क्रोध आया. विवेकानंद से बिल्कुल रहा नहीं गया वे अपने कमरे से बाहर आए और वेश्या का गीत सुनने के लिए वहां बैठ गए. इस तरह विवेकानंद एक वेश्या से पराजित हुए और कहीं ना कहीं इसी हार ने उन्हें पूर्ण रूप से संन्यास ग्रहण करवा दिया. इसका ज़िक्र उन्होंने अपनी डायरी में भी किया है.

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इस घटना के बाद विवेकानंद को अपने मार्ग पर तटस्थ रहने के साथ-साथ अपने निश्चयों के प्रति समर्पित रहने का भी ज्ञान मिला.

युवाओं के लिए आज भी प्रासंगिक हैं स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद युवाशक्ति के पक्षधर थे और चाहते थे युवा अपनी ताकत को पहचानें और आगे बढ़ें. युवाओं के लिए उनका कहना था कि पहले अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओ, मैदान में जाकर खेलो, कसरत करो ताकि स्वस्थ-पुष्ट शरीर से धर्म-अध्यात्म ग्रंथों में बताए आदर्शो में आचरण कर सको. उन्होंने जो विचार दिये, वो आज के विश्व समाज और युवाओं के लिए अत्यंत प्रासंगिक हैं. ‘उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए’, ये वाक्य युवाओं के बीच आज भी प्रासंगिक है. शायद यही वजह है कि उनके जन्म दिन को अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस के नाम से भी जाना जाता है.

स्वामी विवेकानंद को उनकी पुण्यतिथि पर शत-शत नमन.

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