अदालतों को ‘न्याय का मंदिर’ कहा जाता है. ये मंदिर रूपी इमारत देश में रह रहे उन तमाम लोगों के लिए एक उम्मीद की किरण होती है जो निष्पक्ष इंसाफ़ चाहते हैं.
हमने हज़ारों बार सुना है और पढ़ा है कि न्यायपालिका लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण स्तंभों में से एक है और उसमें बैठे न्यायधीश उसकी नींव. मगर कई बार लोगों को यहां सिर्फ़ निराशा मिली है. बीते कई सालों में ऐसे बहुत से क़िस्से हुए हैं जब अदालतों द्वारा ऐसे बयान दिए गए हैं जिसने जनता को बहुत निराश किया है.
1. सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अपनी एक सुनवाई में मैरिटल रेप को लेकर सवाल खड़े किए हैं. 2019 में विनय प्रताप सिंह नामक शख़्स पर एक महिला ने शादी का झांसा देकर रेप करने का आरोप लगाया था. जहां चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया, जस्टिस बोबड़े ने शादी का झांसा देने को तो ग़लत माना लेकिन महिला द्वारा लगाए गए मैरिटल रेप पर एक बड़ा बेतुका सवाल किया,
जब दो व्यक्ति पति-पत्नी की तरह साथ रहते हैं, पति कितना भी क्रूर हो, लेकिन क्या सेक्शुअल इंटरकोर्स को रेप कहा जाएगा?
विनय प्रताप सिंह एक महिला के साथ रिश्ते में थे. बाद में सिंह ने सिर्फ़ सेक्सुअल रिलेशनशिप बनाने के लिए उससे एक मंदिर में शादी कर ली. महिला ने FIR तब की जब उसे पता चला कि सिंह ने किसी अन्य महिला से भी शादी कर ली है. महिला का ये भी आरोप था कि 2 साल के रिश्ते में सिंह ने उस के साथ शारीरिक हिंसा भी की है. जिस पर बेंच का कहना था:
फिर आप पर मार पीट और वैवाहिक क्रूरता का मामला दर्ज करें. बलात्कार का मामला क्यों दर्ज किया जाए?
2. सुप्रीम कोर्ट ने एक नाबालिग लड़की से लगातार बलात्कार करने वाले आरोपी से पूछा था कि क्या वह सर्वाइवर से शादी करेगा. 23 साल का मोहित सुभाष चवन, महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिक प्रोडक्शन कंपनी में टेक्नीशियन का काम करता था. उस पर 16 साल की लड़की ने स्टॉक करने और कई बार रेप का आरोप लगाया था. जब मामले की सुनवाई चल रही थी तब चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया, जस्टिस बोबड़े ने आरोपी से पूछा कि क्या वह लड़की से शादी करेगा? इस बात पर जस्टिस बोबड़े और कहते हैं कि
युवा लड़की के साथ छेड़खानी और बलात्कार करने से पहले आपको सोचना चाहिए था. आप जानते थे कि आप एक सरकारी कर्मचारी हैं. हम आपको शादी करने के लिए मजबूर नहीं कर रहे हैं. अगर आप करेंगे तो हमें बताएं. अन्यथा आप कहेंगे कि हम आपको उससे शादी करने के लिए मजबूर कर रहे हैं.
3. जनवरी में रिलीज़ हुई वेब सीरीज़ ‘तांडव’ पर धार्मिक भावनाएं आहत करने का आरोप लगाया गया था. देश के अलग-अलग कोने से सीरीज़ को बैन करने की मांग की जा रही थी. शो के मेकर्स, एक्टर्स और Amazon Primeपर कई FIR भी दर्ज की गई थीं. इसी सिलसिले में सुरक्षा पाने के लिए मेकर्स और एक्टर्स ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया तो उनकी अपील ख़ारिज करते हुए तीन जजों की बेंच जस्टिस अशोक भूषण, आरएस रेड्डी और एमआर शाह ने कहा
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आपका अधिकार पूर्ण नहीं है. आप एक ऐसे किरदार की भूमिका नहीं निभा सकते जो किसी समुदाय की भावनाओं को आहत करता है…आप लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत नहीं कर सकते.
4. कर्नाटक हाई कोर्ट ने रेप के एक आरोपी को गिरफ़्तारी से पहले ही बेल दी थी. उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति, कृष्णा एस दीक्षित का कहना था कि रेप पीड़िता की शोषण के प्रति प्रक्रिया बिलकुल सही नहीं थी क्योंकि वह सो गई थी.
शिकायतकर्ता के एक्सप्लेनेशन के अनुसार वो ज़बरदस्ती के बाद थक गई थीं और सो गई थीं, एक भारतीय महिला के लिए अशोभनीय है, ज़बरदस्ती के बाद हमारी औरतें वैसे रिएक्ट नहीं करती.
इतना ही नहीं जस्टिस कृष्णा एस दीक्षित ने सर्वाइवर को भी दोषी ठहराया कि वह आरोपी के दफ़्तर देर रात को गई और शराब पिने के लिए मना भी नहीं किया.
5. अपने कॉन्वेंट स्कूल में दाढ़ी रखने की अनुमति को लेकर एक मुस्लिम छात्र की याचिका ख़ारिज कर दी गई थी. जस्टिस, मार्कंडेय काटज़ू का कहना था कि इससे देश ‘तालिबानीकरण’ की तरफ़ बढ़ जाएगा,
हम देश में तालिबानी नहीं चाहते हैं. कल एक छात्रा आ सकती है और कहेगी कि वह बुर्क़ा पहनना चाहती है, क्या हम इसकी अनुमति दे सकते हैं?
6. 19 जनवरी को यौन उत्पीड़न के एक मामले की सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर पीठ ने यौन उत्पीड़न की एक बेहद ही अटपटी परिभाषा दी. 39 वर्षीय आरोपी पर 12 वर्षीय बच्ची को ग्रोप करने और उसकी सलवार हटाने का आरोप था. मगर न्यायाधीश ने आरोपी को पोक्सो एक्ट के तहत सज़ा नहीं सुनाई, बल्कि आरोपी पर आईपीसी की सेक्शन 354 (छेड़खानी या उत्पीड़न) लगाई. न्यायाधीश का कहना था कि
12 साल की बच्ची का ब्रेस्ट दबाना, इस बात के कोई सुबूत नहीं है कि आरोपी ने टॉप के अंदर हाथ डालकर ब्रेस्ट दबाए थे, ये सेक्शुअल असॉल्ट की परिभाषा में नहीं आएगा. इसके लिए यौन मंशा के साथ स्किन टू स्किन कॉन्टेक्ट होना ज़रूरी है.
7. जस्टिस एसआर सेन, ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि भारत को विभाजन के बाद एक हिन्दू राष्ट्र बन जाना चाहिए था. राज्य सरकार द्वारा अधिवास प्रमाण पत्र से वंचित व्यक्ति द्वारा दायर इस याचिका कि सुनवाई करते वक़्त कहा
मैं यह स्पष्ट करता हूं कि किसी को भी भारत को एक और इस्लामिक देश बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए अन्यथा यह भारत और दुनिया के लिए एक प्रलय का दिन होगा.
8. 2017 में 3 क़ानून पढ़ने वाले लड़कों को एक लड़की के साथ गैंग-रेप करने के बावजूद ज़मानत मिल गई. जस्टिस महेश ग्रोवर और जस्टिस राज शेखर अत्री ने इस मामले में सुनवाई की थी. जजों का कहना था कि इसमें लड़की की भी ग़लती है कि वो पहले भी कई सारे रिश्तों में सेक्सुअली एक्टिव रह चुकी है. लड़कों को ज़मानत देते हुए उन्होंने कहा
यह देशद्रोह होगा अगर ये युवा दिमाग़ लंबे समय तक जेल के पीछे डाल दिए जाएंगे, जो इन्हें शिक्षा से वंचित रखेगा. अपने आप को बेहतर और इस समाज में एक समान्य व्यक्ति की तरह रहने का अवसर छीन लेंगे.
9. सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 377 हटाने के दो साल बाद, दिल्ली HC में समलैंगिक विवाह की मांग करने वाली याचिका पर चल रही एक सुनवाई में सॉलिसिटर, जनरल तुषार मेहता कहते हैं
ये विवाह उन प्रावधानों के विपरीत हैं जो हमारे समाज में पहले से ही लागू हैं. हमारे मूल्य एक विवाह, जो पवित्र है, एक ही लिंग के दो लोगों के बीच में होने वाली शादी को मान्यता नहीं देते हैं.
10. एक वैवाहिक केस की सुनवाई के दौरान कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, के. भक्तवत्सल ने एक युवा महिला वकील को इस मामले की सुनवाई के लिए अयोग्य माना क्योंकि वह अविवाहित थी.
पारिवारिक मामलों में केवल विवाहित लोगों द्वारा तर्क दिया जाना चाहिए न कि अविवाहित लोगों द्वारा. आपको केवल देखना चाहिए. पारिवारिक अदालती कार्यवाहियों को देखने वाले बैचलर्स और अविवाहित सभी सोचने लगेंगे कि क्या शादी करने की कोई ज़रूरत है. विवाह एक सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की तरह नहीं है. आप शादी करें और फिर इस तरह के मामलों पर बहस करने के लिए आपके पास अच्छा अनुभव होगा.
11. 2017 में राजस्थान हाई कोर्ट ने एक रेप सर्वाइवर का केस ख़ारिज कर दिया था क्योंकि शरीर पर चोट के निशान नहीं थे.
मेडिकल प्रमाण में उसके शरीर के किसी भी हिस्से पर कोई भी चोट का संकेत नहीं दिया जिससे पता चलता है कि उसे कभी भी जबरन बलात्कार का शिकार नहीं होना पड़ा.
12. गुवाहाटी हाई कोर्ट में एक वैवाहिक अपील की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायधीश, अजय लांबा और न्यायमूर्ति, सौमित्र सैकिया की बेंच का कहना था कि जो विवाहित हिन्दू महिला सिन्दूर और चूड़ी नहीं पहनती हैं वो एक तरह शादी को नहीं मानती हैं,
सखा(चूड़ी) और सिन्दूर पहनने से इंकार का मतलब यही है कि महिला अविवाहित है या पति के साथ विवाह को स्वीकार करने से इनकार कर देगी.
ये सभी बातें बहुत से सवाल खड़ा करती हैं. हमें आख़िर एक समाज के रूप में किस ओर जाना है?