‘क्या बात कर रही है? तूने ब्रेकिंग बैड नहीं देखी.’
इससे मिलते-जुलते ताने मुझे मिलते रहते हैं. दोस्त, दोस्तों के दोस्तों, कज़न्स, रूममेट्स वगैरह ये सब सुनाते ही रहते हैं. मुझे इस पर बहुत गर्व नहीं है पर ये मेरी ज़िन्दगी की सच्चाई है कि मुझसे न तो 3 घंटे की फ़िल्म देखी जाती है और न ही 3 सीज़न्स की सीरीज़.
तो चिल करने के लिए क्या करती हैं आप, लेखिका साहिबा… यहां तक स्क्रॉल करने वाले 5 लोगों में से एक के मन में ये सवाल ज़रूर आएगा. तो जनाब हमारा दिमाग़ चिल करने के लिए दो ही चीज़ ढूंढता है… मस्त अदरक वाली चाय और कार्टून या कॉमिक्स.
होती है जनाब कई बार होती है. कई बार छोटी-छोटी चीज़ों में बचपना दिखा देती हूं. यही नहीं दुकान पर मिलने वाले बच्चों से हद जलन भी होती है कि ये जब जो चाहते हैं रोकर, चिल्लाकर और कुछ नहीं तो ज़मीन पर लोटकर हासिल कर सकते हैं. मम्मी-पापा से नहीं तो किसी और से. हम लोटे ज़मीन पर तो लोग समझेंगे पीकर पड़ी है, वीडियो अलग बनाई जाएगी!
चंपक, नंदन, बाल हंस, अमर चित्र कथा आज भी मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं. दुनिया में टीवी चैनल्स पर सांप-बिच्छू वाले सीरियल्स से लेकर नेटफ़्लिक्स और प्राइम जैसे ऑनलाइन स्ट्रीमिंग ऐप्स/वेबसाइट तक आ गए हैं. पर सच कह रही हूं चंपक का चीकू पढ़कर अच्छा महसूस करती हूं और टॉम ऐंड जेरी देखकर हद हंसी आती है.
सर जी, दिमाग़ के सारे नट कसे हुए हैं और कोई नशा भी नहीं कर रखा. बस यूं समझ लीजिए की ज़िन्दगी की भाग-दौड़ और रस्सा-कशी के बीच कॉमिक्स, कार्टून्स के ज़रिए अपने अंदर के बच्चे को ज़िन्दा रखा है. बचपन की यादों को ताज़ा रखने का ज़रिया है.
कार्टून के नाम पर तो बाहुबली और पता नहीं क्या-क्या आ गए हैं. मैगज़ीन्स के नाम पर चंपक और अमर चित्र कथा कि पैकेजिंग भी बदल गई है. बदलते वक़्त की डिमांड है साहब. पर ये जो कुछ एक नाम हैं न वो स्मृतियों का एक ऐसा डिब्बा खोल देते हैं जिनसे मैं बाहर नहीं आना चाहती हूं. यूं समझ लीजिए की ज़िन्दगी की लड़ाईयों से थोड़ी देर के लिए भाग जाने का तरीका हैं ये मेरे लिए.