दुनिया की किसी भी जगह वो नींद नहीं आती, जो गांव की छत पर चटाई बिछाकर तारों के नीचे आती थी

Sanchita Pathak

गर्मियों का मौसम… बचपन में इसके 3 ही मतलब होते थे 

– आम
– गर्मी छुट्टियां
– बिजली कटौती

होम वर्क, असाइनमेंट, प्रोजेक्ट तो छुट्टियों में ही जुड़ गया न? और वैसे भी वो छुट्टियां ख़त्म होने से पहले ही स्कूल का सारा काम ख़त्म करते थे. 

गर्मी की छुट्टियों में भरी दोपहरी में खेलने जाना, फिर जब तक मां की तेज़ डांट कानों में न जाये तब तक घर लौटना. एक वो दिन था जब न गर्मी लगती थी और न समय की सुध रहती थी और एक आज के दिन हैं जब खाना खाने से लेकर नींद के घंटे तक सब कुछ घड़ी की सुइयों के कन्ट्रोल में हैं. अगर किसी दिन घड़ी की सुई की अवहेलना कर थोड़ा लंबा सो लेते हैं तो पूरे दिन ख़ुद को रह-रहकर कोसने की आदत सी हो गई, नहीं? 

नींद… आती है या नहीं उस पर फिर कभी बात कर लेंगे. क्योंकि उधर जाना यानी दुखती रग पर हाथ रखना है… 


गर्मियों में घर पर सभी भाई-बहन, इकट्ठा होते थे, जिन्हें मटरग़श्ती करने से रोकने में मम्मी लोगों का काफ़ी समय निकल जाता था. बेचारी! काम भी संभालती थी और वानर सेना को भी, क्योंकि पापा-चाचा लोगों ने तो खुली छूट दे रखी थी, जा बेटा जी ले अपना बचपन टाइप. 

गर्मियों की एक बेहद सुनहरी याद है. लाइट तो ईद का चांद हो जाती थी, तो टीवी वगैरह से दोस्ती कम और रेडिया-कॉमिक्स से ज़्यादा थी.  

रात में अक़सर बिजली जी ग़ायब होती थीं, और हम बच्चों के रूटीन में एक अहम हिस्सा था सभी के लिए छत पर बिस्तर लगाना. चटाई, गद्दे, कथरी (पुराने कपड़ों से बनती है), तकिया, लालटेन लेकर काम में लग जाते थे. 

एक कतार से बिस्तरें लगाई जाती थीं. मम्मी-चाची लोगों की एक तरफ़, पापा-चाचा लोगों की एक तरफ़ और हम भाई-बहनों की एक तरफ़. हमें यहां भी झगड़ने का कारण मिल गया था, कोने में कौन सोएगा, क्योंकि कोना एक असुरक्षित जगह थी, और हमारा ये मानना था कि भूत-प्रेत अगर निकट आ गये तो कोने वाले पर पहले अटैक होगा. तो हर दिन कोने में कौन सोएगा इसकी बाक़ायदा रजिस्ट्री होती थी. 

ये तो हो गई डर की बात. लेकिन मेरा सबसे प्रिय हिस्सा ये सब नहीं था. मुझे सबसे ज़्यादा सुकून मिलता था ऊपर आकाश में देखने में. तारों के समंदर में कॉन्सटीलेशन पहचानने में, पापा से उनके बारे में सवाल करने में. अपने आप तारों को जोड़-जाड़कर कोई आकृति बनाने में.  

घर के सामने लगे नारियल के पड़े के पत्ते रह-रहकर हवा में झूमते थे, एक पल को किसी को भी वो आवाज़ डरावनी लगे, पर उस उम्र में भी उसमें सुक़ून महसूस होता था. और मुझे इन कारणों से कोने में सोने में कभी दिक्कत नहीं होती थी, उल्टे बेनिफ़िशियल था. 

वो वाला घर अब भी है, शायद वहां अब भी तारों वाला आसमान होता होगा, पर वहां मैं नहीं हूं. मेरे वाले आसमान में न तारे हैं, न कोने में कपड़े की सिलाई वाली चटाई है. रह गया है तो एक कमरा, एक खिड़की और आसमान का एक टुकड़ा, जिसमें प्रदूषण की चादर इतनी मोटी है कि तारे नहीं दिखते… 

Super Cute Illustrations by- Aprajita

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