भारत एक सांस्कृतिक देश है, जहां कई संप्रदाय, जाति, भाषा और बोली के लोग सदियों से एक-साथ रहते आए हैं. यह पूरी दुनिया के लिए किसी मिसाल से कम नहीं है. अंग्रेज़ों ने भी इस देश को ग़ुलाम बना कर रखा था, उन्होंने यहां के ख़जानों को अपना निशाना बनाया, मगर यहां के सांस्कृतिक महत्व को कभी छू नहीं पाए. हालांकि, दुर्भाग्यवश हमारे देश की तमाम पार्टियां इसी मिसाल को तोड़ने की कोशिश कर रही हैं. वे धर्म, जाति और बोली के आधार पर जनता से वोट मांगती है.
देखा जाए, तो यह जनता को गुमराह करने जैसा है. सबसे बड़ा सवाल ये है कि जब सभी पार्टी देश की भलाई के लिए चुनाव लड़ती हैं, तो फिर धर्म, संप्रदाय पर वोट क्यों मांगती है? हालांकि, इस पर लगाम लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संवैधानिक पीठ ने एक अहम निर्णय लेते हुए कहा कि प्रत्याशी या उसके समर्थकों का धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरक़ानूनी है.
इसका मतलब ये हुआ कि अब कोई भी पार्टी अपने वोटर्स को गुमराह नहीं कर सकती है. यह एक साकारात्मक निर्णय है. जस्टिस टीएस ठाकुर की अध्यक्षता में यह निर्णय लिया गया. देश के इतिहास में यह एक ऐसा क़ानून है, जो नेताओं के ग़लत बयानों पर लगाम कसेगा.
भारतीय संविधान में वर्णित है कि भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है. यहां सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलते हैं. हमारी चुनाव पद्धति भी सरल और धर्मनिरपेक्ष है. देखा जाए, तो इससे पहले देश के नेतागण भारतीय संविधान का मखौल उड़ा रहे थे. जानकारी के लिए बता दूं कि इसका असर पांच राज्यों में होने वाले चुनाव पर ज़रुर पड़ेगा.
क्यों ज़रुरी था ये क़ानून
जनप्रतिनिधि कुछ वोट के लिए देश की भोली-भाली जनता को आपस में लड़ा देते हैं, जिससे आम जनता को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. उदाहरण के तौर पर, लोकसभा प्रचार के दौरान वरुण गांधी का मुस्लिमों के विरोध में भाषण, हैदराबाद में ओवैसी का भाषण.
ये तो कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जो मीडिया में आए हैं. ना जाने कितने और ऐसे भाषण होंगे, जो मीडिया में अब-तक नहीं आए हैं.
इसके पीछे ये है कहानी
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में एक याचिका दाखिल की गई थी, इसके तहत सवाल उठाया गया था कि धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगना जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत करप्ट प्रैक्टिस है या नहीं?
जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-123 (3) के तहत ‘उसके’ धर्म की बात है और इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को व्याख्या करनी थी कि ‘उसके’ धर्म का दायरा क्या है? प्रत्याशी का या उसके एजेंट का भी.
ये कुछ पार्टियों के उदाहरण हैं, जिनका जन्म ही धर्म, बोली, प्रांत और क्षेत्र के आधार पर हुआ है.
- झारखंड मुक्ति मोर्चा- क्षेत्र और आदिवासियों के नाम पर.
- बहुजन समाज पार्टी- दलित और वंचित वर्ग के नाम पर.
- शिरोमणी आकाली दल- सिख संप्रदाय के नाम पर.
- डीएमके – भाषा के आधार पर.
- आईयूएमएल- माइनॉरिटी मुस्लिम के कल्याण की बात करता है.
हालांकि, संविधान में कहीं यह वर्णित नहीं है कि पार्टियां धर्म, बोली, प्रांत और क्षेत्र के नाम पर जनता से वोट मांगे. सुप्रीम कोर्ट की इस कोशिश से चुनाव की छवि बदलेगी. जनता के जनप्रतिनिधियों को जनता के समक्ष विकास और उसकी उपयोगिता के बारे में बात करनी होगी. इस फैसले से पूरी दुनिया में एक अच्छा संदेश जाएगा.