ज़िद करो, सोच बदलो, कब तक बेटे को अपने हाथ का खाना खिलाओगी, अब खाने का वक़्त आ गया है

Kratika Nigam

प्यारी मम्मियों,

आपके हाथ के खाने ने बहुत क़हर बरपा रखा है. और ‘दिल का रास्ता पेट से जाता है’ ने तो कई लोगों के जीवन के रास्ते ही जाम कर दिए हैं. अपने आसपास देखिए. हालत देखिए इन लड़कों की. खाने और मां के हाथ के खाने ने इन्हें इतना बेचारा बनाया हुआ है कभी-कभी समझ नहीं आता कि दुखी होऊं या नाराज़! ज़रा इन 4 क़िस्सों पर नज़र डालिए.  

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अपने एक पुराने दफ़्तर में मैं अपनी एक सहकर्मी के साथ बैठी खाना खा रही थी. हम आदतन खाने और घर-परिवार के बारे में गप्पें मार रहे थे. बात करते करते हम इस बारे में चर्चा करने लगे कि कैसे घर में लोगों को मां के खाने की आदत है या मां के स्वाद की जैसी लत है. मेरी दोस्त ने बताया, 

1. उसके भाई ने 12वीं के बाद मुम्बई के बाद कहीं और पढ़ाई करने के लिए एडमिशन नहीं लिया. उसका कई बढ़िया कॉलेज में सिलेक्शन हुआ लेकिन वो गया नहीं. पढ़ाई के बाद नौकरी के लिए भी उसने मुम्बई के अलावा कोई और शहर नहीं चुना. और वो आज तक मुम्बई में है. और वजह? वजह ये थी कि किसी और शहर में मां के हाथ का खाना नहीं मिलेगा.  
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एक और दोस्त के बारे में बताती हूं. हम साथ काम करते थे. कई बार साथ ही खाना खाते थे. मैंने एक दिन उससे यूं ही पूछा कि खाने में क्या लाए हो? 

2. उसने कहा, ‘क्या लाया हूं? रोज़ की तरह ब्रेड लाया हूं. मेरी मां आलसी है यार. वो ढंग का खाना नहीं बनाती.’ 
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मेरे एक और क़रीबी दोस्त ने मुझे बताया, वो काफ़ी साल से घर नहीं गया है. उसने जब मुझे इस बारे में बताया तो वो बेहद दुखी और लगभग रुंआसा था. उसने कहा,

3. मैं आख़िरी बार घर गया था तो लौटते हुए मेरी मां ने मुझसे ये तक नहीं पूछा कि क्या खाना खाओगे? उसके भाव यूं थे कि ऐसा कैसे कर सकती है कोई मां कि अपने बच्चे से खाने के बारे में न पूछे.  

मैं बस ये सोच रही थी कि खाने का तो पिता ने भी नहीं पूछा. लेकिन खाना बनाना-खिलाना तो बस मां के ही हिस्से है न!.

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इन क़िस्सों की क़तार बहुत लंबी है. कोई करियर को साइड कर देता है, तो कोई अच्छे भले करियर को छोड़कर चला जाता है. 

4. मेरा एक फ़्रेंड जो ख़ुद बहुत अच्छा खाना बनाता है, वो हर वक़्त यही रोता रहता है कि मेरी मां क्या खाना बनाती है यार मुझे तो अपने हाथ के खाने में मज़ा ही नहीं आता. जबकि हम सब उसके हाथ का खाना खाकर उंगलियां चाट लेते हैं. मगर उसके दिमाग़ में एक बात घर कर गई है कि मां के हाथ खाना तो मां के हाथ का खाना होता है. पेट उसी से भरता है. इसके चक्कर में वो दिल्ली से अच्छी भली जॉब की बलि देकर अपने घर वापस चला गया. 
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कभी सोचा समाज की ये सोच कितना कुछ तबाह कर रही है. छोटी-छोटी मासूम बच्चियों को चूल्हे के आगे बिठा दिया जाता है उनके सपने चूल्हे से निकलते धुएं के साथ उड़ जाते हैं. माएं रात-रात जाग कर बेटों का इंतज़ार कर रही हैं.

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इस सोच को कहीं तो रुकना होगा. रुक कर सोचना होगा कि अगर हम ऐसा ही करते रहे तो आने वाली पीढ़ियों में भी औरतों के साथ क्या यही होगा? उन्हें इस जंजाल से निकालने के लिए शुरूआत आज से करनी होगी. और अगर आपको घर में औरत के रूप में मां, बेटी या बीवी के हाथ का खाना इतना ही अच्छा लगता है, तो उसे घर की चौखट से निकलकर अपने हुनर को दिखाने का मौक़ा क्यों नहीं देते? एक आम हलवाई की दुकान से लेकर दुनिया के सबसे मंहगे शेफ़ में ज़्यादातर आदमी ही क्यों है?

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जानवर से तुलना करने पर बिदक जाते हो, कभी सोचा है वो जानवर तुमसे ज़्यादा समझदार है अपने खाने के लिए वो किसी औरत पर निर्भर नहीं है वो अपना खाना ख़ुद ढूंढता है.  

ये एक बहुत गंभीर सवाल है जिसके बारे में हम सबको रुक कर सोचना होगा कि इतनी बड़ी इस दुनिया में जीने के लिए हम अपना पेट ख़ुद नहीं भर सकते? 

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