लड़की के प्रमोशन पर नाक-मुंह सिकोड़ने वालों, प्रमोशन सेटिंग से नहीं मेहनत से मिलता है

Kratika Nigam

जैसे ही मेरी दोस्त का प्रमोशन हुआ 10 में से 4 आंखों में ख़ुशी थी और 6 आंखें सवालिया थीं. वो प्रमोशन के बाद भी ख़ुश नहीं थी. कुछ टाइम पहले मेरे एक और दोस्त का प्रमोशन हुआ था और वो बहुत ख़ुश था. उस दिन पता चला वो ख़ुश इसलिए था क्योंकि वो ‘था’ है और मेरी दोस्त इसलिए दुखी थी क्योंकि वो ‘थी’ है.

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हमारी मेहनत घर और बाहर सबको मैनेज करके ऑफ़िस में भी अपना 100% देने की जद्दोज़हद में लगे रहने के बाद जब एक आवाज़ आती है, भाई लड़की है, इसे तो सब मिल जाता है…बॉस के साथ सेंटिंग हुई और देखो प्रमोशन हो गया. वो अंदर तक हिला देती है.   

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साला एक हम लोग हैं. कि हमें तो गधों की तरह काम करने के बाद कुछ नहीं मिलता है.

आज इसी पर बात करते हैं तुम्हें क्या मिला और हमें क्या नहीं…जो थोड़ा सा मिल जाने पर तुम लड़कों की ‘छाती पर सांप लोटते हैं’. 

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रुको और सुनो लड़की हूं सब मिलता नहीं है सब छिन जाता है. घरवाले तक हमारे होने पर मातम मनाते हैं. कुछ घरों में तो आने से पहले ही मार देते हैं. पीरियड्स होते ही स्कूल छूट जाता है. स्कूल के बाथरूम में कितने सुरक्षित हैं ये भी पता नहीं होता है. पिछड़ी जगहों पर तो लड़कियों को ये भी नहीं पता होता कि कब किसके खूटे से बांध दी जाएंगी? 

अगर देखा जाए तो ये हालात देश में काफ़ी कुछ बदले भी हैं. लोगों ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है. मगर कुछ लोगों की दकियानूसी सोच की घड़ी आज भी वहीं अटकी हुई है कि लड़कियां बिना सहारे कुछ नहीं कर सकती हैं.

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शायद यही वजह है कि पहले तो पढ़ाई मुश्किल से होती है और इसके बाद कुछ और करने को बोल दो, तो सबको सांप सूंघ जाता है. फिर लड़-झगड़ कर जैसे-तैसे हम घर से बाहर निकलते हैं, भागा-दौड़ी करके जॉब हासिल करते हैं उसकी सराहना तो नहीं करते. हमारी क़ाबिलियत पर शक़ करते हैं और ये बड़े शहरों की छोटी सोच वाले लोग हमें बताते हैं कि तुम अपने घर से लड़कर सिर्फ़ ‘बॉस के साथ सोने के लिए आई हो’.

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मेट्रो की एक्स्ट्रा सीट से तुम्हें प्रॉब्लम है, हमारी जॉब प्रमोशन से तुम्हें प्रॉबल्म है. अगर हम किसी से हंसकर बात कर लें तो तुम्हें प्रॉबल्म है. तुम किसी भी लड़की के साथ भद्दा मज़ाक करो तो वो ग़लत नहीं क्योंकि तुम लड़के हो कर सकते हो. और रोना रोते हो कि लड़कियों को सब मिल जाता है…

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ये प्रॉबल्म तब क्यों नहीं होती जब ऑनर किलिंग के नाम पर लड़कियों को बेरहमी से मारा जाता है? जब उसे कोख़ में ही मार दिया जाता है? जब एक लड़की को अंधेरी रात में रेप कर दिया जाता है? जब उसकी पढ़ाई ये कहकर छुड़वा दी जाती है कि ‘भाई’ का पढ़ना ज़रूरी है? जब उसे घर की ज़िम्मेदारियों के नाम पर बेमन से ब्याह दिया जाता है? जब उसके पैदा होने पर किसी को भी ख़ुशी से नहीं बताया जाता है? तब कहां जाती हैं तुम्हारी वो सवालिया नज़रें. 

ये नज़रें सिर्फ़ तब उठती हैं जब हमें प्रमोशन मिलता है. उसपर छीटाकशीं करने के लिए तुम अपनी आंखें खोल लेते हो. और हमारे प्रमोशन को सेटिंग बताते हो. उसे तुम प्रमोशन की जगह नाजायज़ बच्चे की तरह देखकर मुंह बनाते हो जो बॉस से एक रात की सेटिंग का नतीजा है.

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बचपन में तो हम लड़कियों को कभी दादी से आसानी से तुमसे ज़्यादा बिस्किट भी नहीं मिले, तो कोई हमें प्रमोशन क्या देगा? तुम्हारी इन घटिया बातों की वजह शायद यही है कि तुम्हें सबकुछ आसानी से मिला है, मेहनत नहीं करनी पड़ी. जब हम तुमसे ज़्यादा मेहनत करके आगे बढ़ जाते हैं तो तुम लड़कों को हज़म नहीं होता है. और चीख-पुकार करने लग जाते हो. हम लड़कियों को भद्दे-भद्दे नामों से बुलाने लग जाते हो. मगर हमारी काबिलियत को नहीं देखते हो.

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अपनी उंगली उस दिन हम पर उठाना, जिस दिन हमसे ज़्यादा मेहनत कर पाना. जिस दिन सिर्फ़ लड़के होने की वजह से चार बिस्किट मत खाना. 

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