21 मई, 1991…
उम्र: सिर्फ़ 46 साल…
पद: भारत के प्रधानमंत्री…
मौत की वजह: नफ़रत…
नफ़रत, सियासी खेलों और असहिष्णुता की भेंट चढ़ गए थे देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री. राजनैतिक परिवार से होने के बावजूद पायलट की नौकरी करते थे राजीव गांधी.
सबसे बड़े प्यार से मिलते थे राजीव. चाहे वो कोई भी क्यों न हो. शायद यही स्नेह ही उनकी मृत्यु का कारण भी बना.
नीना गोपाल, राजीव गांधी की हत्या की साक्षी हैं. अपनी किताब, The Assassination of Rajiv Gandhi में पहली बार उन्होंने उस रात की घटना का पूरा विवरण दिया है.
पढ़िए राजीव गांधी की मृत्यु की कहानी, उस घटना की साक्षी के शब्दों में.
“ हम जैसे ही वहां पहुंचे, पटाखों की आवाज़ ने हमारा स्वागत किया. श्रीपेरंबदुर के मुख्य मंदिर के सामने पड़ी खाली जगह पर एक लाल कालीन बिछाई गई थी. गाड़ी की सामने वाली सीट से राजीव गांधी ने उतरते हुए मुझसे कहा, ‘आईये, मेरे साथ आईये.’ मैं हिचकिचा रही थी, मैं गाड़ी के पीछे और आगे तक जाकर पूरे स्थान का मुआएना करना चाहती थी.
‘मेरा एक और सवाल है. मैं यहीं पर आपका इंतज़ार करूंगी’, मैंने राजीव से कहा.
एक बम, एक सुसाइड बॉम्बर और भारतीय धरती पर पहली महिला सुसाइड बॉम्बर. ये ख़्याल किसी के भी मन में नहीं आया होगा, जब राजीव भीड़ के बीच जाकर अपने चाहनेवालों से मिल रहे होंगे. जो भी उनकी तरफ़ हाथ बढ़ाता, उससे हाथ मिलाते हुए, सबकी तरफ़ मुस्कुराकर देखते हुए वो स्टेज की तरफ़ बढ़ रहे थे.
कुछ मिनटों बाद एक भयंकर विस्फ़ोट हुआ. मैं धमाके की जगह से लगभग 10 कदम की दूरी पर खड़ी थी मेरी सफ़ेद साड़ी, मेरे हाथ, ख़ून और मांस से भर चुके थे. वो मंज़र बयां करना मुश्किल है… जिस व्यक्ति से मैं कुछ मिनट पहले बात कर रही थी, उनके साथ कुछ बहुत बुरा हुआ था.
वो भीड़ जो जोश-ओ-ख़रोश के साथ नारे लगा रही थी, अब नहीं थी. जोशीले नारों की जगह चीखों ने और आत्मा को कंपा देने वाले रोने की आवाज़ों ने ले ली थी. मैं आगे की तरफ़ भागी और किसी ने मुझे पीछे खींचते हुए तमिल में कहा, ‘ध्यान से, तुम किसी के हाथ पर पैर रखने वाली थी.’
टूटे बैरिकेड, मृतकों के शरीर के चिथड़ों को पार करते हुए मैं ब्लास्ट साइट तक पहुंची. मेरे दिमाग़ में सिर्फ़ एक ही बात आ रही थी, ‘राजीव गांधी का क्या हुआ?’
वहां पड़ी बॉडीज़ में ही वो कहीं पड़े होंगे. ये धमाका कितना सीरियस था? क्या वो बच गए? या फिर उनकी मौत हो गई?
और फिर मैंने उनका शरीर देखा. उस दृश्य को मैं ताउम्र नहीं भूल सकती.
‘वो वहां क्यों पड़े हैं? कोई उनकी मदद क्यों नहीं करता? कोई उन्हें इमरजेंसी ट्रीटमेंट के लिए अस्पताल क्यों नहीं ले जाता… इमरजेंसी मेडिकल टीम कहां है? क्या किसी ने अस्पताल फ़ोन किया?’ ये सब मैं चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थी. पर मेरी सुनने वाला कोई नहीं था.
डरी भीड़ इधर-उधर भाग रही थी. हल्की-फुल्की रौशनी के बीच मैंने कॉन्ग्रेस लीडर, जी. के. मूपनार, जयंती नटराजन और मरगाथम चंद्रशेखर को देखा, जो कुछ ही देर पहले मेरे साथ कार में थे. मरगाथम के कहने पर ही राजीव गांधी ने इस लेट-नाइट चुनावी रैली के लिए हांमी भरी थी.
तीनों नेता सदमे मे थे. मरगाथम को देख ऐसा लग रहा था मानो उनकी दुनिया बिखर गई हो.
अगले दिन नटराजन और मूपनार ने मुझे बताया कि वो राजीव के शरीर को उठाने की कोशिश कर रहे थे, पर राजीव का शरीर हाथ में आते ही बिखर जा रहा था. बद् से बद्तर बात ये थी कि एक भी पुलिसवाला नज़र नहीं आ रहा था, सिवाय राजीव गांधी के पर्सनल बॉडीगार्ड, प्रदीप कुमार गुप्ता के, जिसकी मृत्यु ब्लास्ट में हो चुकी थी. कोई एंबुलेंस भी नहीं थी, अब हर रैली में एंबुलेंस की व्यवस्था रहती है, तब नहीं थी. न कोई चिकित्सक, न स्ट्रेचर और न ही कोई गाड़ी, जिससे राजीव को नज़दीकी अस्पताल पहुंचाया जा सके.
ब्लास्ट के कुछ ही मिनटों बाद मैंने 2 लाल बत्ती वाली गाड़ियों को घटनास्थल से भागते ज़रूर देखा था.
घटनास्थल के हालात बिगड़ते जा रहे थे. ब्लास्ट साइट की तरफ़ भीड़ बढ़ने लगी थी. थोड़ी देर बाद मैंने एक एंबुलेंस को घटनास्थल पर पहुंचते देखा. लाइट्स जलाती, भीड़ से निकलने की कोशिश करती, हां वो एंबुलेंस ही थी. मुझे एंबुलेंस के साथ जाकर देखना था कि इस कहानी का अंत कैसे हुआ. मैं भीड़ में से रास्ता ढूंढते हुए उस गाड़ीवाले को ढूंढ रही थी, जिसकी गाड़ी मैंने किराये पर ली थी. तभी कहीं से राजीव गांधी का ड्राईवर मेरे पास आ गया. मैं उसे निजी तौर पर नहीं पहचानती थी, पर उसने मुझे आवाज़ दी और कहा कि वो मुझे काफ़ी देर से ढूंढ रहा था.
मेरी बांह पकड़ते हुए उसने कहा, ‘हमें जाना चाहिए. ये जगह सुरक्षित नहीं है. कुछ भी हो सकता है. चलिए, जल्दी चलिए. मैं आपको मद्रास वापस ले जाऊंगा. विरोध शुरू हो गए, तो दंगे भड़कने लगेंगे. रास्ते ब्लॉक हो जायेंगे और हम यहां से निकल नहीं पाएंगे.’
मैं उसे कह रही थी कि कॉन्ग्रेस के नेताओं को छोड़कर भागना, राजीव के शरीर को छोड़कर भागना ग़लत है, पर उसने मेरी नहीं सुनी. उसने मुझे भरोसा दिलाया कि वो एंबुलेंस के पीछे अस्पताल तक जायेगा. मेरे ड्राईवर का कुछ पता नहीं था और शहर तक पहुंचने का मेरे पास सिर्फ़ यही तरीका था. मैं राजीव के ड्राईवर के साथ चल पड़ी. जैसे हमारी गाड़ी घटनास्थल से बाहर निकलने लगी, मैं भीड़ में अपने ड्राईवर को आख़िरी बार ढूंढने की कोशिश कर रही थी, पर वो कहीं नहीं दिखा.
हमने एंबुलेंस का पीछा किया. वहां से अलग-अलग तरह की रिपोर्ट्स मिल रही थी. कोई राजीव की मृत्यु की ख़बर की पुष्टि नहीं कर रहा था और न ही कोई इस बात से इंकार कर रहा था. इससे पहले कि हालात बेकाबू होते, हम मद्रास की तरफ़ निकल पड़े. माउंड रोड स्थित सेंट्रल टेलीग्राफ़ के दफ़्तर पर मैं ख़बर की कॉपी टाइप कर रही थी. मैं कॉपी लिख रही थी, सारे Telex Operators स्तब्ध होकर देख रहे थे.
राजीव गांधी मर चुके थे. वक़्त, रात के 10:21, 21 मई, 1991.
स्टोरी फ़ाइल करने के बाद मैं अपने पति के चाचा के घर पहुंची. चाचा, एम.के.रामदास को हर तरफ़ से फ़ोन आ रहे थे. उनके Cousin, एम. के. नारायणन जो उस वक़्त Intelligence Bureau के Head थे, उस रात की घटना के बारे में मुझ से हर अहम जानकारी हासिल करना चाहते थे. मैंने जो भी देखा था, सब उन्हें एक-एक कर बताती जा रही थी. चार साल पहले भी प्रधानमंत्री पर जानलेवा हमला हुआ था, इसके बाद भी उनकी सुरक्षा में दी गई ढील के बारे में मैंने उन्हें बताया. मुझ पर ख़ुद इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा था. अपने माता-पिता के पास पहुंचकर ही मैं राजीव गांधी की दर्दनाक मृत्यु पर आंसू बहा पाई. घटना के पूरे 72 घंटे बाद मैं ढंग से रो पाई.
कुछ महीनों बाद मेरे पास अबु धाबी स्थित भारतीय एंबेसी से फ़ोन आया कि सोनिया गांधी मुझे से मिलना चाहती हैं. मैं 31 मई को दिल्ली पहुंची और कॉन्ग्रेस के पार्टी ऑफ़िस पहुंची. रास्ते में मुझसे कॉन्ग्रेस नेता सवाल कर रहे थे कि क्या सोनिया गांधी कॉन्ग्रेस की बागडोर संभालेंगी? जिस कमरे में कभी राजीव कैबिनेट के साथ मीटिंग किया करते थे, वहां सोनिया बैठी थी, बिना किसी श्रृंगार के.
वो मेरे पास आई और मेरे हाथ पकड़कर पूछने लगी… ‘मुझे सब बताओ, बताओ उन्होंने क्या कहा था, उनका मूड कैसा था, उनके आख़िरी पल कैसे थे. मैं तुमसे सुनना चाहती हूं. क्या वो ख़ुश थे, क्या वो परेशान थे, उनके आख़िरी शब्द क्या थे…”
सोनिया की आंखों से आंसू बह रहे थे और मेरे भी…
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