कुछ चीज़ों को पर्दे के पीछे इस कदर रख दिया जाता है कि उन चीज़ों पर कब धूल जम जाती है पता भी नहीं चलता. किसी भी देश की सेना को उस देश का सबसे अहम अंग माना जाता है. सेना और फौज़ी जैसे शब्द सुनते ही आम नागरिक की आंखों में एक चमक सी आ जाती है और उसका सिर इन शब्दों के पीछे छुपे त्याग और समर्पण के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता है.
इन सब कारणों की वजह से नागरिक सैन्य प्रणाली की कार्यप्रणाली के अंदर कभी झांकने की कोशिश नहीं करते हैं. कभी कोई व्यक्ति अगर इसके अंदर जाने का प्रयास भी करता है, तो गोपनीयता के नाम पर उसे टरका दिया जाता है. ऐसे में इस तंत्र में शोषण और भ्रष्टाचार के मामलों के बढ़ने की सम्भावनाएं ज़्यादा बन जाती है.
सैन्य तंत्र की इसी कमी की वजह से 26 साल पहले एक सैन्य अधिकारी का जीवन तबाह कर दिया था. इस तंत्र के खिलाफ़ एक लंबी लड़ाई लड़ कर आज इस फौज़ी ने अपना खोया सम्मान फिर से पाया है. इस कार्य में आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल का भी अहम रोल रहा.
26 साल पहले गलत तरीके से कोर्ट मार्शल कर जेल भेजे जाने के एक मामले में सेकंड लेफ्टिनेंट शत्रुघ्न सिंह चौहान को अब जा कर न्याय मिला है. आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल की लखनऊ बेंच ने गुरुवार को सुनाये फ़ैसले में सेकंड लेफ्टिनेंट शत्रुघ्न सिंह चौहान को बेदाग माना, इसके साथ ही उन्हें फिर से नौकरी पर बहाल करने के आदेश भी दिए. इसके साथ ही उन्हें प्रमोशन देने का आदेश भी इसमें शामिल है.
ट्रिब्यूनल ने रक्षा मंत्रालय पर इस मामले में 5 करोड़ का जुर्माना भी लगाया है. जुर्माने की रकम में से 4 करोड़ रुपये चौहान को मुआवज़े के रूप में दिए जायेंगे. शेष बचे हुए 1 करोड़ रुपये को सेना के केंद्रीय कल्याण फंड में जमा कराने होंगे.
दोषियों के खिलाफ़ कड़ी कार्यवाही करने के भी निर्देश
ट्रिब्यूनल के जस्टिस देवी प्रसाद सिंह और प्रशासनिक सदस्य एयर मार्शल अनिल चोपड़ा की खंडपीठ ने अपने 300 पेज के फ़ैसले में ये भी कहा है कि वह अपने ऊपर हुए हमलों के लिए एफआईआर भी दर्ज करवा सकते हैं. ट्रिब्यूनल ने कहा कि चौहान को फंसाने वालों पर जांच कर सख्त कार्यवाही की जाये.
क्या है पूरा मामला
मैनपुरी निवासी सेकंड लेफ्टिनेंट शत्रुघ्न सिंह चौहान सेना की छठी राजपूत बटालियन, श्रीनगर में 1990 में पोस्टेड थे. यहां जॉइन किये इन्हें 12 दिन ही हुए थे कि 11 अप्रैल 1990 को उन्हें बटमालू में एक आतंकी के घर से 147 सोने के बिस्किट (27.5 किलो सोना) बरामद हुए थे. बरामद सोने को उन्होंने अपने कर्नल को सौंप दिया था. अगले दिन हुई कार्यवाही में कर्नल ने छापे में बरामद सोने का जिक्र रिपोर्ट में नहीं किया. जब इस बात पर चौहान ने आपत्ति जताई, तो कर्नल और लेफ्टिनेंट ने उनको फंसाने की साजिश रची.
कई बार हुए जानलेवा हमले
13 अप्रैल 1990 को चौहान जब अपनी ड्यूटी करके रात में अपने आवास की तरफ़ जा रहे थे, तो साजिश के तहत उन पर गोली चलाने का आदेश दिया गया. घायल अवस्था में उनका इलाज़ पहले श्रीनगर और उसके बाद लखनऊ में चला. स्वस्थ होने के बाद जब वो वापिस श्रीनगर गये, तो इस बार एके-47 से उन पर हमला हुआ.
संसद में भी उठा था मामला
संसद में भी चौहान ने न्याय के लिए गुहार लगाई थी. संसदीय समिति ने अपनी कार्यवाही में उन्हें निर्दोष पाया था. इसके बाद भी सेना मुख्यालय चुप बैठा रहा. आगे चल कर चौहान ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में जा कर इस मुद्दे को आगे बढ़ाया.
इतने लंबे समय तक इंसाफ के लिए लड़ाई लड़ने वाले एस.एस. चौहान की जितनी तारीफ़ की जाये उतनी कम है. आज के समय में इंसाफ़ कितना महंगा और मुश्किल हो गया है, इस घटना से समझा जा सकता है. एक सेना अधिकारी को अपने आप को बेगुनाह साबित करने में 26 साल लग गये, तो एक आम आदमी के लिए न्याय पाना कितना मुश्किल होता होगा यह अपने आप में बड़ा सवाल है.