‘एंबेसडर’ वो स्वदेशी कार जो नेता से लेकर आम आदमी तक की सवारी थी. 1958 में भारतीय मोटर्स ने हिंदुस्तानियों के लिये ‘एंबेसडर’ कार निकाली. असल में मेक इन इंडिया की शुरूआत ‘एंबेसडर’ कार से हो चुकी थी. भारतीय मोटर्स की ये कार इतनी सॉलिड और मजबूत थी कि अच्छा खासा वज़न सह सकती थी. भारतीय सड़कों के गढ्ढों पर फ़र्राटे से घूमती थी और रख-रखाव में भी ज़्यादा ख़र्च नहीं था.

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धीरे-धीरे ‘एंबेसडर’ भारत के बड़े-बड़े अधिकारियों और नेताओं के दिलों पर भी राज करने लगी. इसके बाद इसकी छत पर लाल बत्ती लगा कर इसकी शान और महत्व का बढ़ा दिया गया. कार के एक विज्ञापन में कहा गया कि था ‘हम अभी भी असली नेताओं की प्रेरक शक्ति हैं.’ अब सड़कों पर ‘एंबेसडर’ का जलवा था और हर कोई इसके महत्व को समझने लगा था.

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‘एंबेसडर’ से जुड़ा क़िस्सा

ये क़िस्सा पंडित जवाहर लाल नेहरू से जुड़ा हुआ है. दरअसल, चाचा नेहरू आमतौर पर भारतीयों का इस्तेमाल करते थे. पर हवाई अड्डे या विदेशी मेहमानों को लाने के लिये कैडिलैक का यूज़ करते थे. उस समय लाल बहादुर शास्त्री विदेश मंत्री थे और उन्होंने एक दिन जवाहर लाल नेहरू से इसका कारण पूछ डाला. नेहरू जी ने शास्त्री जी को जवाब देते हुए कहा कि वो ऐसा इसलिये करते हैं, ताकि लोगों को पता चल सके कि भारतीय प्रधानमंत्री भी कैडिलैक में घूम सकते हैं.

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वहीं, 1964 में शास्त्री जी ने भारत की कमान संभाली और ‘एंबेसडर’ को अपना साथी बनाये रखा, क्योंकि उन्होंने इस बात से फ़र्क नहीं पड़ता था कि विदेशी गणमान्य क्या सोचते हैं और क्या नहीं. शास्त्री जी सिर्फ़ भारत निर्मित कार में ही यात्रा करने पसंद करते थे. 1990 तक देश से लेकर विदेश तक स्वदेशी कार का जलवा बरकरार रहा है, लेकिन फिर धीरे-धीरे मारुति जैसी कारों ने दस्तक दी. इसके बाद सड़कों पर ‘एंबेसडर’ का दिखना कम हो गया.

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आखिरकार 2014 में वो समय आया जब भारतीय मोटर्स को एंबेसडर का उत्पादन बंद करना पड़ा. ‘एंबेसडर’ को ‘भारतीय सड़कों का राजा’ माना जाता था और आज तक उसके जैसी एहमियत किसी को नहीं मिला.