राजनीति वो समंदर है, जिसके अंदर अगर डुबकी लगा दी तो बाहर निकलने के मौक़े कम मिलते हैं. और देश में आज जिस तरह का रूप राजनीति ले चुकी है वो तो बहुत घिनौना है. वोट चाहिए होंगे तो जनता दिखती है उसके बाद हालत प्रवासी मज़दूरों जैसी होती है. राजनीति के उसी रूप को जनता के सामने कुछ फ़िल्मों के ज़रिए लाया गया था. मगर आज ये फ़िल्में बनती, तो शायद इन्हें रिलीज़ कराने के लिए डायरेक्टर और प्रोड्यूसर के जूते घिस जाते लेकिन ये फ़िल्में रिलीज़ नहीं हो पातीं.

1. जाने भी दो यारों

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नसीरुद्दीन शाह अभिनीत 1983 की ये कॉमेडी फ़िल्म भारत की राजनीति, नौकरशाही, समाचार सोर्स और व्यवसायों में होने वाले भ्रष्टाचार पर एक व्यंग्य थी. इसमें महाभारत के सीन के ज़रिए जो व्यंग किया गया था वो आज के राजनेताओं को नहीं पसंद आता.

2. हे राम

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कमल हासन द्वारा निर्देशित और अभिनीत ये फ़िल्म 2000 में आई थी और रिलीज़ के समय भी विवादास्पद रही थी. इसमें विभाजन, गांधी की हत्या और बाबरी मस्जिद जैसे मुद्दों को उठाया गया था. इसमें रानी मुखर्जी और शाहरुख़ ख़ान भी थे.

3. रंग दे बसंती

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सरकारी भ्रष्टाचार और अन्याय के ख़िलाफ़ आम युवाओं की क्रांति की कहानी है, जो अपने पायलट दोस्त के लिए सिस्टम से टकरा जाते हैं. और भगत सिंह के नाटक को करते-करते देश को वाकई बदलने की ठान लेते हैं. फ़िल्म की कहानी 6 दोस्तों के इर्द-गिर्द घूमती है, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट हैं. फ़िल्म में दिखाया गया है कि एक आदमी अगर ठान ले तो सिस्टम में बदलाव ला सकता है?  

4. काय पो छे!

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2013 में सुशांत सिंह राजपूत, राजकुमार राव और अमित साध अभिनीत इस फ़िल्म ने धार्मिक असमानता, राजनीति और गुजरात दंगों की कहानी को 3 दोस्तों के ज़रिए फ़िल्मी पर्दे पर उतारी थी. ये मुद्दे आज के दौर में विवादों से भरे हैं.  

5. हु तू तू

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गुलज़ार द्वारा निर्देशित फ़िल्म हू तू तू साल 1999 में आई थी. इसमें राजनीतिक भ्रष्टाचार और एक राजनेता के परिवार पर इसके बुरे प्रभावों को दिखाया गया था. किडनैपिंग, भ्रष्टाचार और आम आदमी के संघर्ष को दिखाय गया था.

6. माचिस

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1996 में गुलज़ार द्वारा निर्देशित ये थ्रिलर 1984 के सिख विरोधी दंगों के ऊपर आधारित थी. फ़िल्म में राजनीतिक व्यवस्था और कानून-व्यवस्था में लचीलेपन को भारत में आतंकवाद और उग्रवाद के बढ़ने का कारण दिखाया गया था.

7. हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी

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2005 के आई इस फ़िल्म में 1970 के दशक में नक्सल आंदोलन को दिखाया गया था. साथ ही पुलिस की क्रूरता और सरकार की मनमानी को भी बख़ूबी पेश किया गया था. ये फ़िल्म सरकार की कुर्सी हिलाने की हिम्मत रखती थी.

8. पी के

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इस फ़िल्म में ये दिखाया गया था कैसे हम सब इन धर्म के अनुयायियों के पाखंड को सच मान लेते हैं, जो ग़लत है. जैसे हम इंसान हैं वो भी इंसान हैं और उनको भगवान समझकर हम इंसान उनकी हाथों की कठपुतली बन जाते हैं. फिर हमारे अंधविश्वास का फ़ायदा उठाकर वो अपना स्वार्थ पूरा करते हैं.

9. A Wednesday

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2008 में आई इस थ्रिलर फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह एक आम आदमी का किरदार निभाया था, जो मुंबई दंगों में मरे लोगों के लिए इंसाफ़ चाहता है, जो सरकार और पूरे सिस्टम को एक कठघरे में खड़ा करने की ताक़त रखता है.

10. हैदर

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विलियम शेक्सपियर के नाटक हैमलेट पर आधारित ये फ़िल्म 2014 में हेमलेट पर आधारित इस फ़िल्म में 1995 के उग्रवाद प्रभावित कश्मीर के संघर्षों और नागरिकों के लापता होने की घटनाओं को दिखाया गया था. फ़िल्म में शाहिद कपूर के किरदार का नाम हैदर था, जो एक कवि था. हैदर अपने पिता के लापता होने के बारे में पता लगाने के लिए संघर्ष करते हुए कश्मीर लौटता है और राज्य की राजनीति में फंस जाता है.

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