3 मई 1913 को इंडियन सिनेमा की पहली मूक (साइलेंट) फ़ीचर फ़िल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ रिलीज हुई थी. इसके 18 साल बाद 14 मार्च, 1931 को भारत की पहली बोलती (साउंड) फ़िल्म ‘आलमआरा’ सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई थी. ‘आलमआरा’ ही वो फ़िल्म थी जिसने असल में हिंदी सिनेमा की नींव रखी थी. 14 मार्च 1931 की तारीख इंडियन सिनेमा के इतिहास के लिए बेहद ख़ास है क्योंकि इसी दिन से भारतीय सिनेमा ने बोलना शुरू किया था. इंडियन फ़िल्म इंडस्ट्री ने इन 109 सालों में हमें कई बेहतरीन कलाकार दिये हैं. इन्हीं में से एक नाम रूबी मायर्स उर्फ़ सुलोचना का भी है.
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आज हम आपको 3 मई 1913 से 14 मार्च, 1931 के बीच बनी मूक (साइलेंट) फ़िल्मों की मशहूर अदाकारा रूबी मायर्स (Ruby Myers) की कहानी बताने जा रहे हैं. भारतीय सिनेमा में रूबी मेयर्स को ‘सुलोचना’ के नाम से जाना जाता है. दिखने में बेहद ख़ूबसूरत रूबी अपनी बोल्डनेस के लिए भी काफ़ी मशहूर थीं. हालांकि, रूबी मायर्स से पहले कुछ एक्ट्रेसेस ने हिंदी फ़िल्मों में कदम ज़रूर रखा था, लेकिन रूबी अपने हुनर से भारत की पहली फ़ीमेल सुपरस्टार बनीं. ये उस दौर की बात है जब भारत में केवल मूक फ़िल्में ही बना करती थीं.
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First Female Superstar of Bollywood Sulochana
असल ज़िंदगी में कौन थीं रूबी मायर्स?
रूबी मायर्स (Ruby Myers) का जन्म सन 1907 में महाराष्ट्र के पुणे शहर में हुआ था. रूबी भारत में रहने वाली यहूदी वंश से संबंध रखती थीं. वैसे वो ब्रिटिश मूल की थीं. रूबी ने अपनी पढ़ाई लिखाई पुणे में ही पूरी की. इसके बाद वो अपना खर्च उठाने के लिए एक कंपनी में ‘टेलीफ़ोन ऑपरेटर’ की नौकरी करने लगीं. टाइपिंग स्पीड में इनका कोई मुक़ाबला नहीं था और ख़ूबसूरती ऐसी कि हमेशा आकर्षण का केंद्र बनीं रहती थीं. यहीं पर ‘कोहिनूर फ़िल्म कंपनी’ के मालिक मोहन भवनानी की नज़र उन पर पड़ी. मोहन ने तुरंत पूछ लिया- सिनेमा में काम करोगी? लेकिन जवाब में इंकार मिला.
Ruby Myers
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पहली फ़िल्म के बाद ‘रूबी’ से बनीं ‘सुलोचना’
दरअसल, उस दौर में एक्टिंग को महिलाओं के लिए बेहद असभ्य पेशा समझा जाता था. लेकिन सुलोचना की ख़ूबसूरती के कायल हो चुके मोहन भवनानी ने उन्हें हीरोइन बनाने की ज़िद पकड़ ली. आख़िरकार रूबी इसके लिए राजी तो हो गईं, लेकिन उन्हें अभिनय का कोई अनुभव नहीं था. रूबी ने 1925 की फिल्म ‘वीर बाला’ से अभिनय शुरू किया. फिल्म में उन्हें ‘मिस रूबी’ के तौर पर क्रेडिट मिला, लेकिन इसके बाद वो रूबी मायर्स से ‘सुलोचना’ बन गईं.
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जब हीरो लेते थे 100 रुपये, सुलोचना लेती थीं 5000 रुपये
भारत में सन 1910 से 1930 के बीच कई मूक (साइलेंट) फ़िल्में बनीं. इस दौरान इन फ़िल्मों में एक्टिंग करना बेहद मुश्किल होता है. मूक फ़िल्मों में न डायलॉग होते थे, न ही गाने, लेकिन जो भी बड़े पर्दे पर ‘सुलोचना’ को देखता, वो देखता ही रह जाता था. बला की ख़ूबसूरत सुलोचना को पर्दे पर देखने का क्रेज़ कुछ ऐसा था कि दर्शक सिनेमाघरों की ओर दौड़े चले आते थे. केवल दर्शकों के बीच ही नहीं फ़िल्म निर्माताओं के बीच भी क्रेज सुलोचना का क्रेज़ गज़ब का था. फ़िल्म निर्माता उन्हें बतौर हीरोइन मुंह मांगी रकम दिया करते थे. उस दौर में जहां बड़े-बड़े अभिनेता महज 100 रुपये की फ़ीस लिया करते थे, वहीं सुलोचना प्रति फ़िल्म 5000 रुपये लेती थीं.
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3 फ़िल्मों से ही रूबी बन गईं बड़ी स्टार
मोहन भवनानी के डायरेक्शन में बनी फ़िल्मों ने सुलोचना को स्टार बना दिया, लेकिन कुछ फ़िल्मों के बाद सुलोचना ने ‘कोहिनूर फ़िल्म कंपनी’ को छोड़कर ‘इंपीरियल फ़िल्म कंपनी’ जॉइन कर ली. इस कंपनी के साथ सुलोचना ने क़रीब 37 फिल्में कीं. इनमें से टाइपिस्ट गर्ल (1926), बलिदान (1927), वाइल्ड कैट ऑफ़ बॉम्बे (1927) बेहद कामयाब रहीं. सन 1928-29 के बीच रिलीज़ हुईं ‘माधुरी’, ‘अनारकली’ और ‘इंदिरा बीए’ फ़िल्मों ने सुलोचना को इंडस्ट्री की कामयाब एक्ट्रेस का दर्जा हासिल करवा दिया.
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सेट पर ‘रॉल्स रॉयस’ और ‘शेवरले’ से आती थीं
सुलोचना एक के बाद एक हिट फ़िल्में देने के बाद इंडस्ट्री की बड़ी स्टार बन चुकी थीं. उस ज़माने में जब अभिनेता साइकिल से सेट पर आया करते थे, वहीं सुलोचना ‘शेवरले’ और ‘रॉल्स रॉयस’ जैसी लग्ज़री गाड़ियों से आती थीं. इस दौरान जब वो अपनी गाड़ी से उतरतीं तो आसपास देखने वालों की भीड़ लग जाया करती थी. रूबी को लेकर लोगों में दीवानगी ऐसी थी कि भीड़ के डर से उन्हें सिनेमाघरों में अपनी ही फ़िल्म देखने बुर्का पहनकर जाना पड़ता था. 1930 के दशक में रूबी अपनी फ़िल्मों के स्टंट, स्विमिंग और हॉर्स राइडिंग सीन भी ख़ुद ही किया करती थीं.
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जब मोरारजी देसाई ने बैन की सुलोचना की फ़िल्म
सन 1929 में सुलोचना ने ‘हीर-रांझा’ फ़िल्म में अपने को-स्टार दिनशॉ बिलिमोरिया के साथ किसिंग सीन देकर हर किसी को हैरान कर दिया था. देखते-ही-देखते सुलोचना मूक फ़िल्मों की सेक्स सिंबल बन गईं. वो रील ही नहीं रियल लाइफ़ में भी अपनी बोल्डनेस से लोगों का ध्यान खींच लेती थीं. ‘जुगनू’ फ़िल्म में स्टूडेंट बनीं सुलोचना और प्रोफ़ेसर बने दिलीप कुमार के बीच लव एंगल दिखाया गया. बॉम्बे स्टेट के तत्कालीन होम मिनिस्टर मोरारजी देसाई ने फ़िल्म को असभ्य और नैतिकता के ख़िलाफ़ बताते हुए इसे बैन कर दिया. फ़िल्म में दिलीप कुमार और नूरजहां लीड रोल में थे, जबकि सुलोचना स्टूडेंट बनी थीं.
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साउंड फ़िल्मों का ज़माना आया तो रह गईं पीछे
सन 1930 तक सुलोचना फ़िल्म इंडस्ट्री की नंबर वन एक्ट्रेस बन चुकी थीं, लेकिन 1931 में जब भारत की पहली बोलती (साउंड) फ़िल्म ‘आलम आरा’ में सुलोचना की जगह जुबैदा को कास्ट कर लिया गया. इसके पीछे का कारण था सुलोचना को हिंदी अच्छे से नहीं आती थी. इस तरह से कमज़ोर हिंदी होने की वजह से उन्हें कई फ़िल्मों से दरकिनार कर दिया गया. इसके बाद सुलोचना ने 1 साल का ब्रेक लेकर हिंदी में महारत हासिल की और दमदार कमबैक किया. सन 1930 में उन्होंने ख़ुद की प्रोडक्शन कंपनी ‘रूबी पिक’ शुरू की.
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शौक बड़े थे, लेकिन कमाई नहीं
ख़ुद की प्रोडक्शन कंपनी खोलने और हाईएस्ट पेड एक्ट्रेस बनने के बावजूद नूरजहां, खुर्शीद, सुरैया सरीखी नई एक्ट्रेस के आने से सुलोचना की पॉपुलैरिटी धीरे धीरे कम होने लगी, लेकिन उनके तेवर और महंगे शौक पहले की तरह जारी थे. एक समय ऐसा भी आया जब सुलोचना को इंडस्ट्री में काम मिलना बंद हो गया. आर्थिक तंगी के चलते सोने के गहने नकली गहनों से रिप्लेस हो गये, लेकिन उन्होंने कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाये.
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नंबर वन एक्ट्रेस से बन गईं एक्स्ट्रा कलाकार
सुलोचना इसके बाद इंडस्ट्री की पहली फ़ीमेल सुपरस्टार से जूनियर आर्टिस्ट बन गईं. जब सुलोचना की फ़िल्म ‘अनारकली’ तीसरी बार बनी तो लीड रोल बीना रॉय को दे दिया गया. सुलोचना को सलीम की मां जोधा बाई का साइड रोल मिला. ख़ुद के महंगे शौक पूरे करने के लिए वो ये रोल करने के लिए राजी हो गईं. इसके बाद तो उन्हें साइड रोल मिलने भी बंद हो गये और सुलोचना एक्स्ट्रा बनकर काम करने लगीं. (First Female Superstar of Bollywood Sulochana).
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सन 1925 में फ़िल्मों में कदम रखने वाली रूबी मायर्स उर्फ़ सुलोचना ने अपने 65 साल के फ़िल्मी करियर में 100 से अधिक फ़िल्मों में अभिनय किया. सन 1973 में सुलोचना को भारतीय सिनेमा में दिए योगदान के लिए फिल्म जगत के सबसे सम्मानित ‘दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड’ से नवाजा गया. सुलोचना ने एक लड़की को गोद लिया और उसका नाम सारा मायर्स रखा जिसे शादी के बाद विजयलक्ष्मी श्रेष्ठ के नाम से जाने जानी लगीं. आख़िरकार 10 अक्टूबर 1983 में गुमानाम ज़िंदगी जी रहीं सुलोचना दुनिया छोड़ चलीं.