कालिंजर का क़िला… एक ऐसा क़िला जिसने कई सदियों तक भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को बदलते देखा है. कभी बुंदेलखड में चंदेल शासकों की शान रहे कालिंजर दुर्ग (Kalinjar Fort) को जीतने की चाहत में न जाने कितने शासक कालिंजर तक आए, लेकिन सभी खाली हाथ लौट गये. 5वीं सदी में बने इस विशाल क़िले को कोई भेद नहीं पाया. इस क़िले की मज़बूती की तुलना Great Wall of Gorgan से भी की जाती है. इसे भारत के सबसे विशाल और अपराजेय दुर्गों में गिना जाता रहा है. इस क़िले में दुनियाभर के इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं की भी ख़ासी दिलचस्पी रही है.

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प्राचीन काल में ये क़िला जेजाकभुक्ति साम्राज्य के आधीन था. 10वीं शताब्दी तक ये क़िला चन्देल राजपूतों के आधीन और फिर बाद में रीवा के सोलंकियों के आधीन भी रहा. इन राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेर शाह सूरी और हुमांयू जैसे योद्धाओं ने आक्रमण किए, लेकिन इस पर विजय पाने में सभी असफल रहे. इसे जीतने के लिए सम्राट पृथ्वीराज चौहान से लेकर पेशवा बाजीराव तक ने पूरी ताकत लगा दी थी. लेकिन ‘कालिंजर विजय अभियान’ के दौरान तोप का गोला लगने से शेरशाह की मृत्यु हो जाने बाद मुगल बादशाह अकबर ने इस पर अधिकार कर लिया और इसे बीरबल को तोहफ़े में दे दिया.

कालिंजर का क़िला (Kalinjar Fort)

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वेद-पुराण से लेकर महाभारत तक में ज़िक्र

ये विशाल क़िला भारतीय इतिहास के हर प्रमुख कालखंड में उपस्थित रहा और ये हर घटनाक्रम का प्रत्यक्ष गवाह भी बना. कालिंजर इलाके की मौजूदगी का ज़िक्र वेद-पुराण से लेकर महाभारत तक में आता है. लोककथाओं में दर्ज ये वो स्थान है, जहां जाकर भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकले कालकूट या हलाहल विष की ज्वाला शांत की और नीलकंठ कहलाए. वक़्त के साथ कालिंजर में बने इस कालिंजर क़िले ने एक तरफ़ भारतीय धरती पर आए घुसपैठियों से लोहा लिया तो दूसरी तरफ़ ये क़िला ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’ का साक्षी भी बना.

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कालिंजर का क़िला (Kalinjar Fort) उत्तर प्रदेश के बांदा ज़िले में स्थित है. विंध्य पर्वत की 800 फुट ऊंची पहाड़ी पर बना ये क़िला विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल ‘खजुराहो’ से 100 किमी की दूरी पर स्थित है. इस क़िले को ख्याति बेशक चंदेल शासनकाल में मिली हो, लेकिन कालिंजर क्षेत्र का इतिहास हज़ारों साल पुराना है.

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कालिंजर क़िले का इतिहास

कालिंजर क़िले (Kalinjar Fort) का ज़िक्र बौद्ध साहित्य में भी मिलता है. गौतम बुद्ध के समय यानी 563-480 ईसा पूर्व यहां ‘चेदि वंश’ का शासन हुआ करता था. इसके बाद ये क्षेत्र मौर्य साम्राज्य के अधिकार में आ गया. भारत के नालंदा विश्वविद्यालय और दूसरे ऐतिहासिक स्थानों की यात्रा कर दुर्लभ संस्मरण लिखने वाले मशहूर चीनी शोधार्थी ह्वेन त्सांग ने भी 7वीं शताब्दी में अपने दस्तावेज़ों में कालिंजर और खजुराहो का ज़िक्र किया है. इस क़िले के ऐतिहासिक साक्ष्य गुप्त काल से मिलने शुरू होते हैं. आर्कियोलॉजिस्ट्स को वहां से गुप्त काल के कुछ शिलालेख मिले हैं. गुप्त काल छठी शताब्दी में ख़त्म हो गया था.

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चन्देलों ने कालिंजर पर किया 400 साल तक राज

9वीं से 13वीं शताब्दी के बीच जब चंदेल शासक अपने शौर्य और गौरव के चरम पर थे, तब कालिंजर चंदेल शासन का हिस्सा बन गया. इस क़िले पर 400 साल तक राज करने वाले चंदेल राजाओं ने कुछ समय कालिंजर को अपनी राजधानी भी बनाया था. कालिंजर पर इतने लंबे समय तक राज करने वाला ये अकेला राजवंश था. पृथ्वीराज चौहान ने जब चंदेलों की मुख्य राजधानी महोबा पर हमला किया और उसे जीत लिया तब चंदेल राजा परमार्दी देव ने कालिंजर के इसे क़िले में आकर ख़ुद की जान बचाई थी. ये वही वक़्त था जब कालिंजर पर आक्रमणों का वो दौर शुरू हुआ, जिसने आने वाले समय में लगभग हर बड़े भारतीय और बाहरी शासक को कालिंजर की ओर आकर्षित किया. 

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कालिंजर को जीतना शौर्य सिद्ध करने की कसौटी

इतिहासकारों के मुताबिक़, कालिंजर दुर्ग (Kalinjar Fort) के प्रति इस आकर्षण की एक बड़ी वजह इस क़िले की भौगोलिक स्थिति थी. रणनीतिक रूप से उस दौर में ये क़िला इतना महत्वपूर्ण हो गया था कि अपनी सत्ता को आगे बढ़ाने की चाहत रखने वाले हर शासक के लिए इसे जीतना एक बड़ा लक्ष्य बन जाता था. कालिंजर को जीतना राजनीति और रणनीति के साथ अपना शौर्य सिद्ध करने की एक कसौटी भी था. उस दौर में घने जंगलों से घिरे और पहाड़ी पर बने इस क़िले तक किसी भी दुश्मन सेना का पहुंचना बेहद मुश्किल था. क़िले के चारों तरफ़ चढ़ाई बेहद खड़ी ढलान वाली थी. इसी वजह से दुर्ग पर तोप से हमला करना भी बेहद मुश्किल था. इसकी दीवारें 5 मीटर मोटी थीं, जबकि क़िले की उंचाई ही 108 फुट थी. 

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शेर शाह सूरी की मौत

चंदेल शासकों के समय कालिंजर दुर्ग (Kalinjar Fort) में कुछ घटनाएं ऐसी भी हुईं जिन्होंने भारतीय इतिहास का रुख मोड़ दिया था. ऐसी ही एक घटना है शेर शाह सूरी का इस क़िले को फतह करने की जंग में मारा जाना भी था. ये उस समय की बात है जब दिल्ली सल्तनत पर मुग़लों का शासन हुआ करता था. तब शेर शाह सूरी ने हुमांयू को हराकर सूरी साम्राज्य की शुरुआत की थी. तब समझा जा रहा था कि ये भारत में मुगल शासन का अंत है, लेकिन 1545 में कालिंजर को जीतने की लड़ाई में शेर शाह सूरी के मारे जाने के कुछ साल बाद ही हुमांयू ने दिल्ली को फिर जीत लिया और अगले 300 साल तक भारत में मुग़लों का शासन रहा.

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अक़बर ने बीरबल को तोहफ़े में दे दिया

सन 1569 में अक़बर ने कालिंजर दुर्ग (Kalinjar Fort) पर कब्ज़ा कर अपने नवरत्नों में से एक बीरबल को ये क़िला तोहफ़े में दे दिया. इसके बाद जब राजा छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव की मदद से बुंदेलखंड से मुग़लों को बेदख़ल किया तब भारत में अंग्रेज़ों के आगमन तक ये क़िला राजा छत्रसाल के राज्य का हिस्सा रहा. कभी किसी महल जैसा रहा ये शानदार क़िला आज खंडहर में तब्दील हो गया है.

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कालिंजर के क़िले को अपराजेय इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसे युद्ध में कोई भी शासक जीत नहीं पाया.

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