History Of Death Railway: हर देश का इतिहास अपने आप कई राज़ समेटे है. इस राज़ में कभी किसी का बेहतर हुआ तो कभी कई जानें भी गयीं. इतिहास के पन्नों में विश्व युद्ध के दौरान हुए नरसंहार के बारे में जानने के बाद अच्छे अच्छों की रूह कांप जाती है. उस दर्दनाक हादसे को भुला पाना नामुमकिन. ऐसी ही एक दर्दनाक घटना द्वितीय विश्व युद्ध ( World War II) के दौरान भी हुई थी जब थाईलैंड और बर्मा के रंगून जोड़ने वाली रेलवे लाइन के निर्माण कराया गया था.
चलिए, इस रेलवे ट्रैक के बारे में जानते हैं की क्यों इसे Death Railway कहा जाता है?
History Of Death Railway
ये भी पढ़िए: जानिए भारत के राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ की खोज किसने की थी, दिलचस्प है इसके बनने की कहानी
इस रेलवे लाइन को बर्मा रेलवे ट्रैक के नाम से जाना जाता है, लेकिन इस 415 किमी लम्बाई वाली रेलवे लाइन के निर्माण के दौरान क़रीब एक लाख 20 हजार लोगों जानें गई थीं, जिसकी वजह से इसे डेथ रेलवे (Death Railway) के नाम से भी जाना जाता है. इस रूट पर क्वाई नदी (Khwae Noi River) पड़ती है, जिस पर बना पुल काफ़ी भयानक माना जाता है, जिसे डेविड लियान की देखरेख में बनाया गया था.
दरअसल, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब जापान ने सिंगापुर और बर्मा के इलाक़ों में अपना कब्ज़ा कर लिया था तो जापान हिंद महासागर, अंडमान और बंगाल की खाड़ी में चलने वाले अपने जहाज़ों के लिए सुरक्षित जगह चाहता था जिसके लिए जापान ने बैंकॉक के पश्चिम में एक ब्रांच लाइन बनवाने का फ़ैसला लिया और मेन रेलवे ट्रैक बर्मा के उत्तर में स्थित था.
ये भी पढ़िए: जानिए भारत के पहले Rocket Launch में केरल के एक चर्च और पादरी ने कैसे निभाई थी अहम भूमिका
इस परियोजना का उद्देश्य थाइलैंड में Ban Pong को बर्मा में Thanbyuzayat से जोड़ना था, जिसका रास्ता थाइलैंड और बर्मा की सीमा पर थ्री पैगोडा दर्रे (Three Pagodas Pass) से होकर जाता था. रेलवे का 69 मील (111 किमी) बर्मा में था और बचा 189 मील (304 किमी) थाईलैंड में था. मई 1942 में सिंगापुर में चांगी जेल और दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य जेल शिविरों से युद्धबंदियों का आंदोलन उत्तर की ओर शुरू हुआ. 23 जून 1942 को, 600 ब्रिटिश सैनिक रेलवे के साथ काम करने वाले कैंपों के लिए एक ट्रांजिट कैंप के रूप में काम करने के लिए थाईलैंड के Camp Nong Pladuk पहुंचे.
आपको बता दें, रेलवे ट्रैक का काम पूरे 15 महीनों यानि 17 अक्टूबर 1943 तक चला था. इसके अलावा, 25 अक्टूबर को लाइन का औपचारिक उद्घाटन किया गया था इसलिए इस दिन अवकाश घोषित किया गया था. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के इस रेलवे लाइन की मरम्मत कराई गई और फिर इस ट्रेन का आवागमन शुरू किया गया.