History of Delhi’s Historical Places Name: भारत की राजधानी दिल्ली (Delhi) देश के प्रमुख ऐतिहासिक शहरों में से एक है. दिल्ली का इतिहास सदियों पुराना है. मुग़लों से लेकर राजपूतों तक, इस शहर पर कई शासकों ने राज किया है. प्राचीनकाल में दिल्ली का नाम ‘इंद्रपस्थ’ हुआ करता था. इतिहासकारों के मुताबिक़, 800 BC में कनौज के गौतम वंश के राजा ढील्लू ने इस शहर पर कब्ज़ा कर लिया. तब उसने ‘इन्द्रप्रस्थ’ का नाम बदलकर ‘ढील्लू’ कर दिया था. वहीं मध्यकालीन युग 1052 AD में तोमरवंश के राजा आनंगपाल द्वितीय को दिल्ली की स्थापना के लिए जाना जाता है. उनके शासनकाल में दिल्ली ‘ढिल्लिका‘ के नाम से जानी जाती थी. अन्य इतिहासकारों का मानना है दिल्ली शब्द फ़ारसी के ‘दहलीज’ या ‘देहली’ से निकला है. इन दोनों शब्दों का अर्थ दहलीज यानी प्रवेशद्वार होता है. उस दौर में इसे गंगा नदी के तराई इलाक़ों का गेट माना जाता है. इस वजह से इसका नाम दिल्ली पड़ा.
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आज हम आपको दिल्ली की कुछ ऐसी ही ऐतिहासिक जगहों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनके नाम के पीछे की कहानी बेहद दिलचस्प है-
1- कैसे पड़ा ‘मजनू का टीला’ नाम?
मजनू का टीला (Majnu Ka Tilla) का इतिहास बेहद ही दिलचस्प है. कहा जाता है कि 15वीं सदी में सिकंदर लोदी के शासनकाल के दौरान गुरु नानक ईरान के रहने वाले एक सूफ़ी फ़कीर से मिले जो यमुना के पास में मौजूद एक टीले पर रहता था. स्थानीय लोग उसे ‘मजनू’ कहकर पुकारते थे. मजनू को गुरु नानक का आशीर्वाद प्राप्त था. गुरु नानक ने जिस स्थान पर मजनू को आशीर्वाद दिया था आज उसी जगह पर गुरुद्वारा मौजूद है. समय के साथ ये जगह ‘मजनू का टीला’ के नाम से मशहूर हो गई.
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2- ‘खारी-बावली’ नाम कैसे पड़ा?
देशभर में मसालों के लिए मशहूर दिल्ली की खारी-बावली (Khari Baoli) मार्किट 1650 में फ़तहपुरी बेगम द्वारा बनाया गया था, जो मुगल सम्राट शाहजहां की एक पत्नी थीं. शाहजहां के शासनकाल से ही ये जगह ‘खारी-बावली’ के नाम से जानी जाती है. बावली का अर्थ सीड़ी-नुुुमा कुआं और खारी या खारा का मतलब नमकीन से है. असल मतलब नमकीन पानी की बावड़ी जो की जानवरों और स्नान के लिए इस्तेमाल की जाती थी. ये जगह लाहोरी गेट इलाक़े में पड़ती है. लेकिन, आज इस इलाक़े में ना तो ‘खारी बावली’ है ना ही ‘लाहोरी गेट’ का कोई निशान बचा है. कहते हैं ये बावली मुख्य बाज़ार की सड़क के नीचे दफ़न है.
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3- कैसे पड़ा ‘हौज़ ख़ास’ नाम?
हौज़ ख़ास विलेज आज दिल्ली के सबसे हाई-प्रोफ़ाइल जगहों में से एक माना जाता है, लेकिन आज से क़रीब 30 साल पहले तक ये जगह गांव हुआ करती थी. लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी कि ये गांव दिल्ली के बनने से पहले से है. दरअसल, मुग़ल सम्राट अलाउद्दीन खिलजी ने अपने शासनकाल के दौरान पानी की ज़रूरत को पूरा करने के लिए इस इलाक़े में पानी का एक बड़ा टैंक बनवाया था. पानी के इसी टैंक के नाम पर इस जगह का नाम ‘हौज़ ख़ास’ पड़ा. सन 1980 के बाद से ये जगह ‘हौज़ ख़ास विलेज’ के रूप में मशहूर हो गई.
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4- कैसे पड़ा ‘लाडो सराय’ नाम?
दिल्ली में साकेत के आस-पास के इलाक़े को लाडो सराय कहा जाता है. लाडो सराय दो शब्दों से मिलकर बना है. लाडो का मतलब ‘प्यारा’ या ‘प्यारी’, जबकि सराय का मतलब ‘रैन बसेरा’ या ‘मुसाफ़िरखाना’ होता है. 14वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के बीच लाडो सराय शहर के महत्वपूर्ण मार्ग (महरौली-बदरपुर रोड) से तुगलकाबाद के उत्तर में ‘रैन बसेरा’ यानि ‘सराय’ के रूप में बनाया गया था. इसे राय पिथौरा ने नाम से भी जाना जाता, जिसे दिल्ली का पहला शहर माना जाता है, पृथ्वी राज चौहान ने इसे 12वीं शताब्दी में तोमर राजपूतों को हराकर बनाया था.
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5- कैसे पड़ा ‘चिराग दिल्ली’ नाम?
चिराग दिल्ली का ये नाम हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के प्रिय शिष्य ‘नसीरुद्दीन महमूद’ के नाम पर पड़ा है. कहा जाता है कि हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह में एक बावली बनाई जा रही है, लेकिन तत्कालीन सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने कारीगरों को काम करने से मना कर दिया. ऐसे में कारीगर तेल के दिए जलाकर चोरी-छिपे रात में बावली बनाने लगे. बादशाह को इसकी भनक लगी तो उसने तेल बेचने पर भी रोक लगा दी. इसके बाद हज़रत निज़ामुद्दीन ने अपने शिष्य नसीरुद्दीन को पानी के दिए जलाने का आशीर्वाद दिया. नसीरुद्दीन ने बावली का पानी घड़ों में भरा और उससे दिये जलाए. इस घटना के बाद ही हज़रत निज़ामुद्दीन ने नसीरुद्दीन महमूद को ‘चिराग-ए-दिल्ली’ का नाम दिया.
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6- ‘अग्रसेन की बावली’ नाम कैसे पड़ा?
दिल्ली के कनॉट प्लेस इलाक़े में स्थित ‘अग्रसेन की बावली’ पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र है. कहा जाता है कि इस ‘बावली’ को अग्रोहा के महाराजा अग्रसेन ने बनवाया था. उन्हीं के नाम पर इस बावली का नाम ‘अग्रसेन की बावली’ पड़ा है. 14 वीं शताब्दी में ‘अग्रवाल समुदाय’ द्वारा इसे फिर से बनाया गया था. ये बावड़ी न केवल एक जलाशय के रूप में बल्कि सामुदायिक स्थान के तौर पर निर्मित की गई थी. इस बावली की लंबाई 60 मीटर और चौड़ाई 15 मीटर है.
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7- ‘फ़िरोज़ शाह कोटला’ नाम कैसे पड़ा?
दिल्ली के राजघाट के आस-पास के इलाक़े को ‘कोटला’ कहा जाता है. इस इलाक़े का नाम ‘फ़िरोज़ शाह कोटला’ तुलगक वंश के शासक फ़िरोज़ शाह तुगलक के नाम पर पड़ा है. फ़िरोज़ शाह तुगलक ने 1351 से लेकर 1388 तक दिल्ली पर शासन किया था. वो 45 साल की उम्र में दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठे थे और उन्होंने अपने शासनकाल में चांदी के सिक्के चलाए थे. फ़िरोज़ शाह तुगलक दिल्ली का पहला सुल्तान था, जो दिल्ली सल्तनत को ‘साउथ दिल्ली’ से ‘रायसीना हिल्स’ के उत्तर में लेकर आया. इसके पहले दिल्ली के शासक मेहरौली फोर्ट, सिरी फोर्ट और जहांपनाह फ़ोर्ट से शासन चलाते थे.
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