History Of Murshid Quli Khan: इतिहास के पन्नों पर वैसे कई सूरमाओं की दास्तां गढ़ी गई है, उन्हीं में से एक थे मुर्शीद क़ुली ख़ान, जिन्हें मुग़ल शासन में दीवान और सूबेदार दोनों का पद एक ही समय में मिल गया था. साथ ही, वो औरंगज़ेब के बहुत क़रीबी थे और उन्होंने औरंगज़ेब के जीवन और मृत्यु दोनों को देखा था. मुर्शीद क़ुली ख़ान ने अपने प्रतिभाशाली व्यक्तितव से औरंगज़ेब का दिल जीत लिया था. हालांकि, वो नाम से ख़ान थे लेकिन असल में वो एक हिंदू परिवार से थे.
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चलिए मुर्शीद क़ुली ख़ान (Murshid Quli Khan) के जीवन से जुड़े कुछ तथ्यों और इतिहास को जानते हैं.
History Of Murshid Quli Khan
सर जदुनाथ सरकार (Sir Jadunath Sarkar) का कहना है कि,
मुर्शीद क़ुली ख़ान मूल रूप से एक हिंदू परिवार से थे, जिनका जन्म 1670 में डेक्कन में हुआ था. इनका असली नाम सूर्य नारायण मिश्रा था, कहते हैं कि, उन्हें बचपन में ही एक मुग़ल सल्तनत के अधिकारी मुस्लिम व्यक्ति को बेच दिया गया था, जिसके बाद सूर्य नारायण मिश्रा का नाम मोहम्मद हादी रखा गया और वो मुसलमान हो गए. मुग़ल अधिकारी ने इन्हें वालिद की तरह पाला और फ़ारस ले आए वहीं उन्हें शिक्षा भी दी.
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हादी अपने मालिक उर्प़ वालिद की मृत्यु के बाद भारत वापस आया और हैदराबाद के दीवान और गोलकुंडा के फ़ौज़दार के रूप में मुग़ल शासन में काम किया. मुग़ल शासन में शामिल होने के बाद जब औरंगज़ेब बंगाल के लिए एक ईमानदार और प्रशासक दीवान को ढूंढ रहा था तभी उसने हादी को इस पद के लिए चुना और 1701 में बंगाल भेज दिया क्योंकि औरंगज़ेब बंगाल में अपनी पकड़ बनाना चाहता था कि उसे वहां से आर्थिक मदद मिल सके.
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तब मुर्शीद क़ुली ख़ानने बंगाल में नवाब शासन की स्थापना की थी. 23 दिसंबर, 1702 को औरंगज़ेब ने हादी को मुर्शीद क़ुली ख़ान की उपाधि दी और मख़सुसाबाद का नाम बदलकर मुर्शीदाबाद करने की भी अनुमति दी. लगातार युद्ध होने की वजह से औरंगज़ेब का ख़ज़ाना खाली होता जा रहा था ऐसे में बंगाल में अपनी पैठ बना चुके मुर्शीद क़ुली ख़ान की वजह से बंगाल ने औरंगज़ेब के शाही दरबार को आर्थिक रूप से मदद की.
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औरंगजेब की मृत्यु सन् 1707 में हुई थी और तब तक सूबेदार की सारी शक्तियां क़ुली ख़ान के हाथों थीं. बंगाल के इतिहास में मुर्शीद क़ुली ख़ान का शासनकाल सबसे शानदार अध्यायों में से एक है. मुर्शीद क़ुली ख़ान को दीवान के रूप में शामिल करना औंरंगज़ेब के कई बड़े और अहम फ़ैसलों में से एक था.
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मुर्शीद क़ुली ख़ान ने अपने शक्तियों का इस्तेमाल तब करना शुरू किया जब औरंगज़ेब की मृत्यु हो गई. इस दौरान शाही राजधानी ने प्रांतीय अधिकारियों को नियंत्रित किया, लेकिन सत्ता की संरचना लचर थी, जिसके चलते क़ुली ख़ान ने कई बड़े फ़ैसले लिए. औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद बंगाल में सूबेदारों का पीढ़ा दर पीढ़ी उत्तराधिकार होना शुरू हुआ, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा उत्तराधिकारियों की पुष्टि की गई.
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इसी दौर में विदेशी ताक़तों ने भी पैर पसारने शुरू किए. विदेशियों ने आकर राजनीतिक और अर्थव्यवस्था दोनों में ही अहम भूमिका निभाई. मुर्शीद क़ुली ख़ान के पूर्वी प्रांत का दीवान बनने से पहले ही विदेशी ताक़तें अपनी पैठ मज़बूत कर चुकी थीं. मुर्शीद के दीवान बनने से पहले अंग्रेज़ कोलकाता और गोविंदपुर के तीन गांवों को भी किराए पर ले चुके थे, जिससे उन्हें व्यापार के भी विशेषाधिकार मिलने लगे थे.
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सन् 1717 में सम्राट ने क़ुली ख़ान को जफ़र ख़ान की उपाधि दी, जिसके चलते वो एक ही समय में बंगाल के सूबेदार और दीवान दोनों बन गए. फिर मुर्शीद क़ुली ख़ान ने ख़ुद को बंगाल का नवाब घोषित किया और प्रांत का पहला स्वतंत्र नवाब बना. 30 जून, 1727 को बंगाल के पहले नवाब का निधन हो गया और उनके बाद उनके पोते सरफ़राज़ ख़ान ने उनकी गद्दी संभाली.