सूचना एवं टेक्नोलॉजी के इस दौर में आज इंसान चांद पर पहुंच चुका है. आज कंप्यूटर के एक क्लिक पर आप इंटरनेट के माध्यम से दुनिया के दर्शन कर सकते हैं. लेकिन दशकों पहले ऐसा नहीं था. आज से क़रीब 100 साल पहले लोगों के लिए ‘कंप्यूटर’ किसी ‘एलियन’ से कम नहीं था. दुनिया के पहले स्वचलित डिजिटल कंप्यूटर बनाने का श्रेय ब्रिटिश गणितज्ञ और आविष्कारक चार्ल्स बैबेज (Charles Babbage) को जाता है. आज हम जो कंप्यूटर इस्तेमाल कर रहे हैं वो चार्ल्स बैबेज की कोशिशों का ही नतीजा है.
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चार्ल्स बैबेज (Charles Babbage) के इस चमत्कारिक आविष्कार ने दुनियाभर में एक नई क्रांति ला दी थी. इसके बाद समय के साथ कंप्यूटर में कई तरह के बदलाव हुए जो आज भी हो रहे हैं. कंप्यूटर का आविष्कार करने के बाद आविष्कारक सुपर कंप्यूटर (Supercomputer) बनाने में जुट गये. आख़िरकार सन 1964 में अमेरिकी इलेक्ट्रिकल इंजीनियर सीमोर क्रे (Seymour Cray) ने दुनिया के पहले सुपर कंप्यूटर CDC 6600 का आविष्कार किया.
क्या होता है सुपर कंप्यूटर?
सुपर कंप्यूटर (Supercomputer) किसी भी देश के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है. किसी भी तरह के शोध व सैन्य हथियारों के बनने के लिए सुपर कंप्यूटर सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. इसकी सहायता से हम मौसम संबंधित जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं. अमेरिका ‘सुपर कंप्यूटर’ बनाने वाला दुनिया का पहला देश था.
बात सन 1988 की है. तब अमेरिकन कंपनी Cray (क्रे) दुनिया में इकलौती ‘सुपर कंप्यूटर’ बनाने वाली कंपनी थी. दुनिया के अन्य देशों की तरह ही भारत को भी ‘सुपर कंप्यूटर’ की सख़्त ज़रूरत थी. ऐसे में भारत ने अमेरिका से ‘सुपर कंप्यूटर’ ख़रीदने का फ़ैसला किया, लेकिन 1 ‘सुपर कंप्यूटर’ की क़ीमत 70 करोड़ रुपये के क़रीब थी. बावजूद इसके भारत ने इसे ख़रीदने का फ़ैसला कर लिया.
अमेरिका ने ‘सुपर कंप्यूटर’ देने से किया इंकार
अमेरिका में नियम था कि किसी भी अमेरिकी कंपनी को अपना सामान अमेरिका से बाहर बेचने के लिए अमेरिकी सरकार से अनुमति लेनी होगी. इस दौरान भारत ने अमेरिकन कंपनी Cray (क्रे) से ‘सुपर कंप्यूटर’ ख़रीदने के लिए संपर्क किया. ऐसे में Cray ने भारत को ‘सुपर कंप्यूटर’ बेचने से पहले अमेरिकी सरकार से अनुमति मांगी, लेकिन सरकार ने अनुमति देने से इंकार कर दिया.
इस दौरान अमेरिकी सरकार का तर्क ये था कि भारत ‘सुपर कंप्यूटर’ का उपयोग रिसर्च या शोध में ना करके सैन्य उद्देश्य के लिए करेगा. भारत को उस वक्त ‘सुपर कंप्यूटर’ की सख़्त ज़रूरत थी. इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) ने देश के प्रसिद्ध वैज्ञानिकों की एक बैठक बुलाई.
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इस दौरान उन्होंने बैठक में उपस्थित वैज्ञानिकों से पूछा ‘क्या हम भी ‘सुपर कंप्यूटर’ बना सकते हैं? बैठक में मौजूद भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक विजय पी. भटकर (Vijay P. Bhatkar) ने कहा कि ‘हमारे वैज्ञानिकों में इतनी काबिलियत है कि वो ‘सुपर कंप्यूटर’ बना सकते हैं’. इस पर राजीव गांधी ने पूछा ‘इसे बनाने में कितना समय लग सकता है’? जवाब में विजय भटकर ने कहा ‘जितने समय में अमेरिका से ‘सुपर कंप्यूटर’ आयात होगा उससे कम समय में हम ख़ुद का ‘सुपर कंप्यूटर’ बना लेंगे’.
इसके बाद राजीव गांधी ने फिर सवाल किया कि ‘इसमें कितना खर्चा आएगा? इस पर विजय भटकर ने जवाब दिया ‘जितने में हम अमेरिका से ख़रीदते उससे भी कम बजट में हम ‘सुपर कंप्यूटर’ बना सकते हैं. विजय भटकर की इन बातों से राजीव गांधी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तुरंत ही ‘सुपर कंप्यूटर’ के निर्माण की स्वीकृति दे दी.
भारतीय वैज्ञानिकों ने कर दिया कमाल
इस दौरान ‘सुपर कंप्यूटर’ बनाने वाले प्रोजेक्ट को ‘C-DAC’ नाम दिया गया. केवल 3 साल बाद सन 1991 में भारत ने अपना पहला सुपर कंप्यूटर परम (PARAM) बना दिया. जब भारत ने ख़ुद का ‘सुपर कंप्यूटर’ बनाया तो अमेरिका को ये बात हजम नहीं हुई. इसलिए उसने अफ़वाह फ़ैला दी कि ये बेहद कमज़ोर है. इसके बाद भारत अपने ‘सुपर कंप्यूटर’ को अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी मे ले गया जहां पता चला कि ‘परम’ दुनिया का दूसरा सबसे तेज़ ‘सुपर कंप्यूटर’ है.
अमेरिकी सुपर कंप्यूटर ‘CDC 6600’ की क़ीमत 70 करोड़ रुपये थी, जबकि भारत के सुपर कंप्यूटर ‘PARAM’ की क़ीमत केवल 3 करोड़ रुपये थी. इस दौरान ‘परम’ की क़ीमत कम होने की वजह से ब्रिटेन, कनाडा और जर्मनी ने भारत से कई ‘सुपर कंप्यूटर’ खरीदे. इससे अमेरिकी कंपनी Cray (क्रे) को काफी नुकसान सहना पड़ा.
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