‘ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं.’ ये टैगलाइन सुनते ही हमारे ज़हन में कानपुर वाले ‘ठग्गू के लड्डू’ (Thaggu ke Laddu) का नाम आ जाता है. लड्डुओं की 6 दशक पुरानी एक ऐसी दुकान, जो आम लोगों से लेकर बॉलीवुड सेलेब्स के बीच भी फ़ेमस है.
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मगर आपने कभी ये जानने की ज़हमत उठाई है कि आख़िर एक लड्डुओं की दुकान का ये अनोखा नाम कैसे पड़ गया? अगर नहीं, तो कोई बात नहीं. हम आज आपको इस नाम के पीछे की वजह और इस दुकान का इतिहास, दोनों बताने जा रहे हैं.
कभी कानपुर की सड़कों पर टहलकर बेचते थे लड्डू
राम अवतार पांडे उर्फ माथा पांडे क़रीब 60 साल पहले उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव परौली से कानपुर पहुंचे. जेब खाली थी, मगर हाथ में बड़ी सी थाली थी. वो थाली जो उनकी पत्नी के बनाए टेस्टी लड्डू से भरी थी. राम अवतार अपने कंधे पर गमछा डाले कानपुर की गलियों में घूम-घूमकर इन लड्डुओं को बेचा करते थे.
धीरे-धीरे उन्होंने पैसा इकट्ठा किया और साल 1973 में कानपुर के परेड इलाके में एक छोटी सी दुकान खरीदी. हालांकि, कुछ सालों बाद, क्षेत्र में दंगे भड़क गए और किसी ने उनकी दुकान जला दी. राम अवतार के लिए ये एक बड़ा झटका था.
मगर उनकी क़िस्मत ने फिर करवट बदली और सरकार से उन्हें बतौर मुआवज़ा कानपुर के ही बड़ा चौराहा इलाके में एक दूसरी दुकान दे दी. फिर जो 1990 से उनकी दुकान चलना शुरू हुई, वो आज तक जारी है.
क्या है ठग्गू के लड्डू नाम की कहानी?
ठीक है, लड्डुओं की ये दुकान सफ़ल हो गई. मगर सवाल ये है कि कोई ख़ुद अपनी ही दुकान का नाम इतना अजीब क्यों रखेगा? इसका जवाब आदर्श पांडे देते हैं. आदर्श, राम अवतार की तीसरी पीढ़ी है, जो दुकान चला रहे हैं.
उन्होंने एक इंटरव्यू के दौरान बताया, ‘हमारे दादा महात्मा गांधी के अनुयायी थे और उनकी सार्वजनिक सभाओं में रोज़ जाते थे. वो महात्मा के भाषणों को सुनकर प्रेरित हो जाते थे. एक बार गांधीजी ने चीनी को ‘सफ़ेद ज़हर’ कहा था.’
गांधी जी की ये बात राम अवतार के ज़हन में थी. इस बात से वो परेशान भी होते थे कि उनके लड्डू तो चीनी से ही बनते हैं. ऐसे में वो सोचने लगे कि बिना चीनी के लड्डू कैसे बनाएंगे?
मार्केटिंग करने में भी माहिर थे राम अवतार
राम अवरात पांडे ने भले ही महात्मा गांधी से प्रेरित होकर अपनी दुकान का नाम ‘ठग्गू के लड्डू’ रख दिया, मगर वो उस नाम पर भी ज़बरदस्त मार्केटिंग कर गए. ‘ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं’ टैगलाइन तो आज घर-घर में बोली जाती है. मगर वो इसके अलावा भी खाने-पीने के सामानों का दिलचस्प नाम रख चुके हैं.
मसलन, वो कभी कानपुर में पूड़ी बेचते थे, जो कपड़ा मिल यूनियन से जुड़ी जगह थी. वहां उन्होंने अपनी पूड़ियों का नाम ‘अपराधी आटे’ से बनी ‘कम्युनिस्ट पूड़ी’ रख दिया. इतना ही नहीं, जब उन्होंने नेता बाज़ार में दुकान खोली तो अपने लड्डुओं का नाम ‘नेता बाज़ार के लड्डू’ रख दिया. यहां नेताओं के सरकारी आवास थे, तो इसकी टैगलाइन उन्होंने दी- ‘दिखाने में कुछ और, खाने में कुछ और’. इसका मतलब था, ‘जैसा दिखता है वैसा है नहीं’. ये राजनेताओं पर मीठे लड्डू बनाने वाले का तीखा कटाक्ष था.
आदर्श कहते हैं, ‘हमारे दादा जी का विश्वास था कि आप सीधे-सीधे कोई सामान लोगों को नहीं बेच सकते. लोगों को कहानी में थोड़ा ट्विस्ट पसंद है.’