Matangini Hazra : आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़ी गई लड़ाई की बात आते ही महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, भगत सिंह, चंद्र शेखर आज़ाद व सुभाष चंद्र बोस जैसे बड़े स्वतंत्रता सेनानियों की छवि मस्तिष्क में उभर आती है. लेकिन, इस लड़ाई में इन महान नेताओं के अलावा और भी कई ऐसे स्वतंत्रता सेनानी शामिल थे, जिन्हें वक़्त के साथ गुमनामी हासिल हुई यानी इतिहास के पन्नों में वो जगह न मिल सकी, जो बाकियों को मिली. यही वजह है कि भारत की एक बड़ी आबादी को इनके बारे में जानकारी नहीं होगी. 

ऐसे गुमनाम फ़्रीडम फ़ाइटर में एक नाम ‘मातंगिनी हाज़रा’ का भी आता है. इनके बारे में कहा जाता है कि अंग्रेज़ों की गोलियों से छलनी होने के बाद भी इन्होंने भारतीय तिरंगे को झुकने और गिरने नहीं दिया था.  

आइये, इस लेख में विस्तार से जानते हैं कौन थीं Matangini Hazra और भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में उनकी क्या भूमिका रही.   

मातंगिनी हाज़रा 

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मातंगिनी हाज़रा (Matangini Hazra) के विषय में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है. वहीं, जो जानकारी उपलब्ध है, उससे ये पता चलता है कि वो पश्चिम बंगाल की रहने वाली थीं और उनका जन्म 19 अक्टूबर 1869 में तामलुक नगर के पास होगला में हुआ था. वो एक ग़रीब किसान की बेटी थीं और यही वजह थी कि वो प्रारंभिक शिक्षा भी ठीक से नहीं ले पाईं. इसका अलावा, वो अपना बचपना भी ठीक से नहीं जी पाईं. 

कहते हैं कि उनकी शादी 12 वर्ष में एक 60 वर्षीय वृद्ध त्रिलोचन हाज़रा के साथ कर दी गई थी. वहीं, 18 वर्ष में वो विधवा हो गईं थीं. इससे पता लगाया जा सकता है कि उनका जीवन कितनी कठिनाइयों से बीता होगा.  

महात्मा गांधी से हुईं प्रभावित  

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90s में जब राष्ट्रवादी आंदोलन जोर पकड़ने लगा, तब महात्मा गांधी भारत के विभिन्न हिस्सों में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी जागरूकता के लिए भ्रमण कर रहे थे. इसी बीच मातंगिनी हाज़रा गांधी जी से काफ़ी प्रभावित हुईं. वो इस कदर उनको मानने लगीं कि उनका एक नाम ‘गाधीं बूढ़ी’ भी पड़ गया था. मणि भौमिक (भारतीय मूल के अमेरिकी भौतिक विज्ञानी, जिन्होंने अपना बचपन व जवानी का अधिकांश समय बंगाल के तामलुक में बिताया) की किताब ‘Code Name God’ के अनुसार, ‘गांधी जी के विचारों से मातंगिनी हाज़रा इस कदर प्रभावित थीं कि उन्हें हमारे गांव में ‘गाधीं बूढ़ी’ कहा जाने लगा यानी एक गांधीवादी वृद्ध महिला’. 

स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी  

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जानकारी के अनुसार, Matangini Hazra 1905 से सक्रिय रूप से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गईं थीं. वहीं, 1932 में उन्होंने गांधी जी के असहयोग आंदोलन में अपनी भागीदारी दी. वहीं, नमक क़ानून तोड़ने पर जो गिरफ़्तारी हुईं उनमें भी वो शामिल थीं. हालांकि, उन्हें जल्द रिहा कर दिया गया था, लेकिन वो ‘कर’ को समाप्त करने का विरोध करती रहीं. उन्हें फिर से गिरफ़्तार किया गया और बहरामपुर में छह महीने के लिए क़ैद कर दिया गया. इसके बाद वो Indian National Congress की सक्रिय सदस्य बन चुकी थीं. 1933 में उन्होंने सेरामपुर में कांग्रेस के एक सम्मेलन में भाग लिया था, जिसमें पुलिस द्वारा किए गए लाठीचार्ज में वो घायल हो गईं थीं.  

भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा  

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इसके अलावा, Matangini Hazra भारत छोड़ो आंदोलन (1942) का भी हिस्सा रहीं. मेदिनीपुर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थानीय शाखा के सदस्यों ने भारत छोड़ो आंदोलन के अंतर्गत ज़िले के स्थानीय सरकारी कार्यालयों और पुलिस स्टेशनों पर नियंत्रण करने के लिए कदम बढ़ाया. उसी वर्ष, सितंबर में 73 वर्षीय हाज़रा ने लगभग 6,000 प्रदर्शनकारियों के एक बड़े जुलूस का नेतृत्व किया, जिनमें ज़्यादातर महिलाएं थीं. इस मार्च का उद्देश्य था तामलुक पुलिस स्टेशन पर कब्ज़ा करना. 

जब मातंगिनी हाज़रा को लगी गोली 

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जब मातंगिनी हाज़रा (Matangini Hazra) का जुलून जब शहर के बाहरी इलाके के पास पहुंचा, तो प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़प हो गई. हाज़रा अपने हाथों में स्वतंत्रता आंदोलन का झंडा लेकर आगे बढ़ीं, ताकि पुलिस से जुलूस में गोली न चलाने की अपील की जा सके. लेकिन, उनकी बातों को नहीं सुना गया और ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों ने उन्हें तीन बार गोली मारी. गोली लगने के बावजूद उन्होंने ‘वंदे मातरम’ का नारा लगाते हुए स्वतंत्रता ध्वज के साथ मार्च करना जारी रखा, जब तक कि उनके प्राण नहीं निकले. झंडा उनके हाथों में जकड़ा हुआ ही था. मरते दम तक उन्होंने झंडे को नीचे गिरने नहीं दिया था. तो इस तरह देश की वीरांगना ने आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहूती दी.