Munshi Nawal Kishore History in Hindi: ब्रिटिश काल का दौरान आपको ऐसे बहुत से व्यक्तियों का ज़िक्र मिलेगा, जिन्होंने भले अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आंदोलन में अपनी सीधे तौर पर अपनी भागीदारी नहीं दी, लेकिन फिर भी किसी न किसी ख़ास काम के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है. मुंशी नवल किशोर (Munshi Nawal Kishore in Hindi) उन्हीं में से एक थे, जिन्होंने लखनऊ में प्रेस का काम उस वक़्त शुरू किया जब भारत अंग्रेज़ों के अधीन था और 1857 की जंग को क़रीब एक साल हो गया था.
ये मुंशी नवल किशोर ही थे जिन्होंने भारतीय सांस्कृतिक विरासत को अपनी प्रेस के ज़रिये महफ़ूज़ रखने का काम किया. वहीं, मिर्ज़ा ग़ालिब को हम तक पहुंचाने में भी मुंशी नवल किशोर ने एक अहम भूमिका निभाई.
आइये, इस लेख के ज़रिये विस्तार से जानते हैं मुंशी नवल किशोर के बारे में.
मुंशी नवल किशोर (Munshi Nawal Kishore)

मुंशी नवल किशोर (Munshi Nawal Kishore in Hindi) अलीगढ़ के जमींदार मुंशी जमुना प्रसाद भार्गव के दूसरे पुत्र थे, और उनका जन्म 3 जनवरी 1836 को हुआ था. छह साल की उम्र में उन्हें अरबी और फारसी सीखने के लिए एक स्थानीय स्कूल में भर्ती कराया गया था. वहीं, 10 साल की उम्र में उन्हें आगरा कॉलेज में भर्ती कराया गया था, लेकिन वो किसी अज्ञात कारण से अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए थे. आगे चलकर उन्होंने लेखन में अपनी रुचि विकसित की.
मुंशी नवल किशोर के पूर्वज 14वीं शताब्दी के सरकारी बाबू हुआ करते थे. वो मुग़लों के दरबार में काम किया करते थे और बदले में जागीरें मिलती थीं. उनकी एक जागीर अलीगढ़ के नज़दीक सासनी में थी, जहां नवल किशोर का जन्म हुआ था.
कोह-ए-नूर प्रेस के कर्मचारी

Who Was Munshi Nawal Kishore in Hindi: 1854 में नवल किशोर लाहौर आ गए थे जहां उन्होंने कोह-ए-नूर प्रेस में काम किया. इसके बाद वो 1856 लखनऊ आ गए. लखनऊ आकर उन्होंने अपना अख़बार सफीर-ए-आगरा प्रकाशित किया. इस बीच वो फिर से लाहौर चले गए और 1857 के अंत तक वहीं रहे. फिर वो वापस लखनऊ आ गए.
अंग्रेजों को भी उनके प्रेस के काम के बारे में पता लग गया था, लेकिन वो उन लोगों में से नहीं थे जो अंग्रेजों से डर जाएं. वो अपने काम में लगे रहे, जबकि कई पुरानी प्रेसों को बंद करवाया दिया गया था.
ख़ुद का प्रिंटिंग प्रेस खोला

साल 1858 में अंग्रेज़ों की स्वकृति से से मुंशी नवल किशोर ने अपना ख़ुद का प्रिटिंग खोला और उत्तर भारत का पहला उर्दू अख़बार, ‘अवध अख़बार’ शुरू किया. प्रशासन के तरफ़ से उन्हें मुद्रण के काम मिलने लगे थे.
वहीं, 1860 में उर्दू भाषा में ‘भारतीय दंड सहिता’ के मुद्रण का काम सौंपा गया. उस दौरान कई मुस्लिम बडे़ अधिकारियों के साथ उनका जुड़ाव था और जब उन्होंने मुद्रण के साथ प्रकाशन का काम शुरू किया, तो उनके प्रशंसकों की संख्या काफ़ी बढ़ गई थी.
उन्होंने धार्मिक किताबों का भी प्रकाशन अपनी प्रेस के ज़रिये किया.
मिर्ज़ा ग़ालिब के बने प्रकाशक

Munshi Nawal Kishore Publisher of Ghalib: मुंशी नवल किशोर ने मिर्ज़ा ग़ालिब से संपर्क किया और इच्छा जताई कि वो अपनी कविताओं को प्रकाशित करें. शुरुआत में कुछ ग़लतियां हुईं, लेकिन जल्द ही नवल किशोर प्रेस मिर्ज़ा ग़ालिब का प्रकाशक बन गया.
मिर्ज़ा ग़ालिब और किशोर में अच्छी दोस्ती थी और एक ख़त में मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा था, “इस प्रेस ने जिसका भी दीवान छापा, उसको ज़मीन से आसमान तक पहुंचा दिया.”
उनकी प्रेस में संस्कृति, उर्दू व हिन्दी के साथ-साथ अन्य भाषाओँ की भी किताबें छपा करती थीं.
200 से अधिक क्रमचारी

उनके प्रेस के काम का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस दौरान उनकी प्रेस में 200 से अधिक कर्मचारी काम किया करते थे और उन्होंने अपने समय में 2 हज़ार से ज़्यादा किताबें प्रकाशित की थीं. देश के कई नामी लेखकर उनकी प्रेस के लिए लिखा करते थे, जिनको अच्छा पैसा भी दिया जाता था.
वो भले हिन्दू थे, लेकिन उन्होंने कुरान और हदीस के साथ-साथ कई इस्लामिक किताबें प्रकाशित कीं.
1860 में जिन हिन्दी पुस्तकों को यहां लाया गया, उनमें रामचरितमानस, सूरदास की सूर सागर और लल्लूजी लाल की प्रेम सागर शामिल थीं. 1873 में रामचरितमानस की क़रीब 50 हज़ार प्रतियां बेची गईं थी.
काम इतना बढ़ा कि कानपूर, कपूरथला, पटियाला व गोरखपुर में प्रेस की शाखाएं खोली गईं. 1877 में अवध अख़बार ने दैनिक समचार पत्र का रूप ले लिया था.
वहीं, इस काम के अलावा, उन्होंने आगरा कॉलेज की नगरपालिका समिति और अल्मा मेटर के बोर्ड में अपनी सेवा दी.
वहीं, 1895 में उनका हृदय गति रुकने से निधन हो गया.