शहीद अरुण खेत्रपाल: ‘1971 भारत-पाक युद्ध’ का वो हीरो जिसने अकेले दम पर पूरी पाकिस्तानी सेना को परास्त कर दिया था. इस दौरान 21 साल के अरुण खेत्रपाल (Arun Khetarpal) ने दुश्मन के 10 टैंक नष्ट किये, दुश्मनों के टैंक बर्बाद करने के दौरान अरुण के टैंक में भी आग लग गई थी जिससे वो वीरगति को प्राप्त हो गये. इस बहादुरी के लिए उन्हें 23 साल की उम्र में मरणोपरांत ‘परम वीर चक्र’ से सम्मानित किया गया था. अरुण खेत्रपाल के पिता ब्रिगेडियर एम. एल. खेत्रपाल भी ‘1971 भारत-पाक युद्ध’ का हिस्सा थे और उन्होंने भी देश को गौरवान्वित किया.

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71 वर्षीय मुकेश खेत्रपाल ने अपने बड़े भाई शहीद अरुण खेत्रपाल की एक दिलचस्प कहानी शेयर की है.  

मुकेश खेत्रपाल ने 1971 के उस दिन को याद करते हुए कहा, दिल्ली की वो सर्द रात मुझे आज भी अच्छे से याद है. तब मैं ‘आईआईटी दिल्ली’ में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था और अरुण की अहमदनगर में ‘ऑफ़िसर्स ट्रेनिंग’ चल रही थी. लेकिन ‘1971 भारत-पाक युद्ध’ की वजह से उनकी ट्रेनिंग बीच में ही रुक गई. भारतीय सेना के अन्य ऑफ़िसरों की तरह अरुण को भी मोर्चे के लिए आने को कह दिया था.

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भारतीय सेना के आदेश के बाद अरुण, पिता से गिफ़्ट में मिली अपनी प्यारी ‘जावा मोटरसाइकिल’ के साथ अहमदनगर से ट्रेन पकड़कर दिल्ली आ गए. इसके कुछ ही घंटे बाद उन्हें जम्मू के लिए ‘पंजाब मेल’ पकड़नी थी, इसलिए उन्होंने दिल्ली में अपनी बाइक उतारकर उसी से घर आने का फ़ैसला किया. मैं उस दिन घर पर ही था. अरुण अपनी बाइक खड़ी करके सीधे घर के अंदर आये. इस दौरान सेना की वर्दी में वो बेहद हैंडसम लग रहे थे.

खेत्रपाल परिवार ने उस रात आख़िरी बार साथ में डिनर किया. इस दौरान डिनर टेबल पर मां ने अरुण से जो कहा वो आगे चलकर सेना का अभिन्न हिस्सा बन गया, बिल्कुल किसी किवदंती की तरह. इस दौरान मां ने आंसू बहाने के बजाय अरुण से कहा ‘शेर की तरह लड़ना अरुण, कायर की तरह वापस मत आना‘. अरुण ने मां की तरफ़ देखा और वो मंद-मंद मुस्कुरा दिए.

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मुकेश आगे कहते हैं, दिसंबर का महीना था हमारे पास हिताची का एक इम्पोर्टेड ट्रांजिस्टर हुआ करता था. हम हर वक्त उसी से चिपके रहते थे और अक्सर ‘रेडियो सिलोन’ सुना करते थे जो युद्ध की विस्तार से रिपोर्टिंग कर रहा था. कभी-कभी सिग्नल अच्छा रहता था और कभी-कभी तो इतना ख़राब कि बमुश्किल कुछ सुनाई देता था, बावजूद इसके हम सभी उसी के पास चिपके रहते थे’.

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16 दिसंबर की शाम को ‘रेडियो सिलोन’ ने ख़बर दी कि शकरगढ़ में भारत-पाकिस्तान की सेनाओं के बीच ज़बरदस्त ‘टैंक युद्ध’ हुआ है. ये ख़बर सुनकर हम बेहद घबरा गये थे, क्योंकि अरुण की रेजिमेंट उसी एरिया में तैनात थी. अगली ही सुबह एक ऐलान होता है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘युद्ध विराम’ की घोषणा कर दी है. जंग ख़त्म हो चुकी थी और ये हमारे राहत वाली बात थी. मेरी मां अरुण के कमरे की साफ़-सफ़ाई में जुट गईं और हम उनके आने के दिन का इंतजार करने लगे.

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19 दिसंबर, 1971 को हमारे घर के दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी. मां ने दरवाज़ा खोला तो सामने पोस्टमैन था. पोस्टमैन ने मां के हाथ में अरुण के नाम की चिट्ठी थमा दी. चिट्ठी खोलकर पढ़ी तो पता चला कि हमारा अरुण युद्ध में शहीद हो गया है. उस टेलिग्राम ने हमारी ख़ुशियों को सदा-सदा के लिए बिखेर कर रख दिया था. मेरी मां ने ख़ुद को एक तरह से घर में कैद कर लिया. मेरे ब्रिगेडियर पिता भी शांत रहने लगे और ख़ुद को अपने कमरे में क़ैद सा कर लिया था.
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इस दौरान हमारा एक-एक पल ऐसे बीतता था जैसे कोई युग बीत रहा हो. ऐसे ही 30 साल गुजर गये. अब हमारे परिवार ने धीरे-धीरे उस सच को कबूल कर लिया था. मैंने आईआईटी की पढ़ाई पूरी कर नौकरी पा ली, शादी भी हो गई साथ में एक प्यारी सी बेटी भी हो गयी. तभी एक दिन मां और मैं बेहद हैरान रह गए जब हमने पापा को फिर से मुस्कुराते हुये देखा, जब हमने उनसे मुस्कुराने का कारण पूछा तो कहने लगे वो अपने पैतृक गांव ‘सरगोधा’ (अब पाकिस्तान) जा रहे हैं. इस दौरान हमने उन्हें मनाने की हर मुमकिन कोशिश की कि अब आप 81 साल के हो चुके हैं. इस उम्र में कहां जाएंगे? लेकिन उन्होंने हमारी एक न सुनी’.

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इस दौरान पापा ने कहा, ‘तुम लोग फ़िक्र न करें मैं अपने कॉलेज के एक साथी के घर ठहरूंगा जो पाकिस्तानी आर्मी में अफ़सर है और लाहौर में रहता है’. इस बात से मुझे और मां को थोड़ी तसल्ली मिली. आख़िरकार वो दिन भी आ गया जब हम उन्हें एयरपोर्ट छोड़ने पहुंचे. दिल्ली से इस्लामाबाद के लिए उन्हें ‘एयर इंडिया’ की फ्लाइट पकड़नी थी. वो किसी स्कूली बच्चे की तरह रोमांचित थे. इस दौरान पापा 3 दिन तक पाकिस्तान में अपने दोस्त के घर पर रहे.

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3 दिन बाद जब मैं पापा को एयरपोर्ट रिसीव करने के लिए पहुंचा तो वो बेहद शांत और खोए-खोए से लग रहे थे. घर पहुंचने पर भी उन्होंने अपने पाकिस्तान दौरे के बारे में हमसे कोई बात नहीं की. क़रीब एक हफ़्ते बाद की बात है. मैं ‘इंडिया टुडे मैगज़ीन’ पढ़ रहा था. इस दौरान अचानक मेरी नज़र एक आर्टिकल पर पड़ी. इसमें पापा की पाकिस्तान यात्रा का ज़िक्र था, जिसमें उन्होंने पाकिस्तानी सेना के उस अफसर से मुलाकात की बात थी जिसकी वजह से उनके बेटे की जान गई थी. आर्टिकल पढ़कर मैं सन्न रह गया. इसके बाद मैं तुरंत पापा के पास गया और उनसे पूछा, क्या जो मैंने पढ़ा वो सच है? इस पर उन्होंने कहा, हां ये सच है. 

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आख़िरकार मिसेज खेत्रपाल और मुकेश के बार-बार पूछने पर ब्रिगेडियर खेत्रपाल ने जो कहा वो सुन दोनों सन्न रह गये.

बात 1 मार्च 2001 पाकिस्तान के लाहौर की है. डिनर के बाद ब्रिगेडियर खेत्रपाल कुर्सी पर बैठे आराम कर रहे थे और उनके सामने मेजबान पाकिस्तानी सेना के एक पूर्व रिटायर्ड अफ़सर ब्रिगेडियर ख्वाजा मोहम्मद नसीर थे. ब्रिगेडियर नसीर उम्र में ब्रिगेडियर खेत्रपाल से कोई 30 साल छोटे थे. इस दौरान ब्रिगेडियर खेत्रपाल के सामने ब्रिगेडियर नसीर के चेहरे के भाव लगातार बदल रहे थे. मानो वो कुछ कहना चाहते थे, लेकिन हिचक रहे थे.

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आख़िरकार ब्रिगेडियर नसीर अचानक बोल पड़े, ‘ब्रिगेडियर साहब मौसम अच्छा है क्यों न कुछ देर के लिए बाहर बगीचे में चलकर बैठें?’ इसके बाद दोनों बगीचें में पहुंचे. इस दौरान नसीर ने धीमे स्वर में कहा, ‘ब्रिगेडियर साहब मैं आज कुछ कबूल करना चाहता हूं’. इस पर ब्रिगेडियर खेत्रपाल प्यार से अपने मेजबान की आंखों में देखते हुए बोले, ‘कहिए बेटा, मैं सुन रहा हूं’.   

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सर, मैंने भी 1971 की जंग में हिस्सा लिया था. तब मैं पाकिस्तानी सेना में मेजर था, पाकिस्तानी सेना की ’13वीं लांसर्स रेजिमेंट’ का स्क्वॉड्रन कमांडर था. ये सुनकर ब्रिगेडियर खेत्रपाल चौंक गए, क्योंकि 13वीं लांसर्स तो वही रेजिमेंट थी, जिससे उनके बेटे अरुण खेत्रपाल रेजिमेंट की ‘पूना हॉर्स’ टकराई थी. सर, हमने ही ‘पूना हॉर्स’ के ख़िलाफ़ बासंतार की लड़ाई लड़ी थी और मैं ही वो शख्स हूं जिसने आपके बेटे की जान ली थी. ये सुनकर ब्रिगेडियर खेत्रपाल हैरान रह गए और चुपचाप नसीर की बातें सुनते रहे. 
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ब्रिगेडियर नसीर कहा, ’16 दिसंबर की सुबह मैं बासंतार में भारतीय रेजिमेंट के ख़िलाफ़ काउंटर-अटैक का नेतृत्व कर रहा था. जबकि दूसरी तरफ़ चट्टान की तरह अडिग आपके बेटे और उनके साथियों ने हमारे कई टैंकों को नेस्तनाबूद कर दिए थे. इस दौरान हमारे सभी साथी शहीद हो गए और अंत में अरुण और मैं आमने-सामने थे. हमारे टैंकों के बीच महज 200 मीटर का फ़ासला था. हम दोनों ने एक साथ फायरिंग की और एक दूसरे के टैंक को निशाना बनाया. ख़ुशक़िस्मती से मैं बच गया, लेकिन अरुण को शहीद होना पड़ा.  

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नसीर आगे बोले- सर, आपका बेटा बहुत बहादुर था बिलकुल आपकी तरह. उसने अकेले ही हमें हरा दिया था. हमारी हार के लिए वही ज़िम्मेदार था. ये सब सुनकर ब्रिगेडियर खेत्रपाल सन्न रह गये. अंत में एक लंबी गहरी सांस लेने के बाद उन्होंने ब्रिगेडियर नसीर पूछा, ‘तुम्हें कैसे पता चला कि वो टैंक अरुण का था?’ 

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इस पर ब्रिगेडियर नसीर ने बताया, 17 दिसंबर की सुबह जब युद्ध विराम का ऐलान हुआ तो मैं अपने एक साथी का शव लेने भारतीय कैंप में गया था. इस दौरान मैं जानना चाहता था कि आख़िर वो योद्धा कौन था जिसने अकेले ही उनके टैंकों को तहस-नहस कर दिया था. जब मैंने भारतीय सैनिकों से पूछा कि उस टैंक पर कौन था? तो मुझे बताया गया कि, उस टैंक पर ‘पूना हॉर्स’ के सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल थे. मैंने उनसे कहा, बेहद बहादुरी से लड़े आपके साहब, उन्हें कोई चोट तो नहीं आई? इस पर मुझे जवाब मिला, ‘साहब शहीद हो गये हैं’. 

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इस दौरान ब्रिगेडियर नसीर ने ब्रिगेडियर खेत्रपाल को बताया कि. मुझे तो अरुण की उम्र के बारे में बहुत बाद में पता चला. जब उन्हें मरणोपरांत ‘परम वीर चक्र’ से सम्मानित किया और वो हिंदुस्तान में ‘नेशनल हीरो’ बने तब मुझे पता चला कि वो केवल 21 साल के थे. हम दोनों ही सैनिक थे और दोनों ही अपने-अपने मुल्क के लिए अपना फर्ज निभा रहे थे.

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इस दौरान चांदनी रात में दोनों अधिकारी बहुत देर तक खामोश बैठे रहे. इसी ख़ामोशी के बीच ब्रिगेडियर खेत्रपाल अपनी कुर्सी से उठे ही थे कि नसीर ने तुरंत उनके पैर पकड़ लिये. जब ब्रिगेडियर खेत्रपाल ने ब्रिगेडियर नसीर की नम आंखों को देखा तो उन्हें बांहों में भर लिया. उसके बाद वो अपने बेडरूम में चले गये. 

जय हिन्द! 

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