Qutubuddin Aibak: भारतीय इतिहास में कई वीर और क्रूर शासक हुए तो कई ग़ुलाम भी हुए हैं, ऐसा ही एक ग़ुलाम 800 साल पहले अफ़ग़ानिस्तान के सुल्तान मोइज़ुद्दीन (मोहम्मद) ग़ोरी के शासन में भी था. मोहम्मद ग़ोरी वो सुल्तान था, जो ऐश की ज़िंदगी जीने के लिए जाना जाता था. साथ ही वो अपने सलाहकारों, दरबारियों और ग़ुलामों को सम्मान भी देता था. इनके इन्हीं सब ग़ुलामों में एक था, क़ुतुबद्दीन ऐबक, जिसने दरबार से मिले ख़ज़ाने को ग़ोरी के महल के बाहर खड़े पहरेदारों और ज़रूरतमंदों को दे दिया. ऐबक की इसी दरियादिली ने चारों तरफ़ हल्ला मचा दिया तब ग़ोरी को भी ये बात पता चली.
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चलिए जानते हैं, आख़िर क़ुतुबद्दीन ऐबक (Qutubuddin Aibak) कौन था और वो इतना दयालु क्यों था?
Qutubuddin Aibak
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तुर्की के कबीले से ताल्लुक़ रखने वाले कुतबुद्दीन ऐबक के नाम में ऐबक का मतलब चंद्रमा का स्वामी होता है. ये तुर्की भाषा का शब्द है. इतिहासकारों का मानना है कि,
इस कबीले में रहने वाले सभी महिलाएं और पुरूष बहुत ही ख़ूबसूरत हुआ करते थे, लेकिन क़ुतबुद्दीन इतने सुंदर नहीं थे. इनका परिवार काफ़ी ग़रीब था, जिसके चलते वो कम उम्र में ही ग़ुलाम बाज़ार में बेचे जाने के चलते परिवार से अलग हो गए.
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ऐबक को ख़रीदने वाले पढ़े-लिखे क़ाज़ी फ़ख़रुद्दीन अब्दुल अज़ीज़ कूफ़ी थे, जिन्होंने ऐबक को अपने बेटे की तरह पाला और सैन्य पर्शिक्षण के साथ-साथ क़ुरान की भी तालीम दी. अच्छी परवरिश ने ऐबक को क़ुरान जा जानकार तो बनाया ही साथ ही एक अच्छा घुड़सवार और तीरंदाज़ भी बनाया. इनके हुनर की चर्चा चारों-तरफ़ होने लगी तभी इनकी ज़िंदगी में एक दुखभरा पल आया जब क़ाज़ी फ़ख़रुद्दीन की मौत हो गई. क़ाज़ी की मौत के बाद उनके बेटे ने ऐबक को ग़लीम बाज़ार में एक व्यापारी को बेच दिया तब उसे मोहम्मद ग़ोरी ने ख़रीदा. इस तरह से ऐबक मोहम्मद ग़ोरी की सल्तनत में शामिल हुए.
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ऐबक की तरबीयत एक अच्छे माहौल में हुई थी इसलिए वो बहुत उदार था तभी वो अपना सबकुछ ज़रूरतमंदों को दे देता था. जब ग़ोरी को अपने महल की बात पता चली तो उन्होंने ऐबक को बुलाया और उसकी दरियादिली देखकर उसे अपने ख़ास लोगों में शामिल कर लिया.
BBC की पिरोर्ट के अनुसार, ग़ोरी साम्राज्य के इतिहासकार मिन्हाज-उल-सिराज़ ने अपनी किताब तबकात ए नासिरी में लिखा है,
ग़ोरी ने ऐबक को अपनी सल्तनत में शामिल करने के बाद उन्हें दरबार से जुड़े महत्वपूर्ण काम सौंपना शुरू कर दिया. ग़ोरी ने ऐबक को अपने साम्राज़्य का सरदार बना दिया फिर उन्हें आखोर की उपाधि दी, जिसका मतलब शाही अस्तबल का दरोगा होता है और ऐबक को उस दौर में इसी नाम से जाना जाता था. ग़ोरी की सल्तनत का ये बहुत ही अहम पद था.
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ग़ोरी के कई जंग में ऐबक ने उनका ख़ूब साथ दिया. कहते हैं, जब मोहम्मद ग़ोरी ने भारत की तरफ़ अपना रुख किया तो ऐबक ने तराइन की दूसरी जंग में उनका साथ देते हुए कमाल की रणनीति लगाई और ग़ोरी को जीत दिलाई. हालांकि, पहली जंग में ग़ोरी के हिस्से हार लगी थी, जो जंग राजपूत राजा पृथ्वी राज चौहान के साथ हुई थी. दूसरी जंग में जीत हासिल होने के बाद ग़ोरी ने ऐबक से ख़ुस होकर उन्हें कई ख़ास और महत्वपूर्ण पद दे दिए.
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बस यहीं से ऐबक का भारत में राजनीतिक आगाज़ हुआ. साल 1206 में मुईज़ुद्दीन मोहम्मद ग़ोरी की मौत हो गई तब तक उन्होंने अपना उत्तरादिकारी घोषित नहीं किया था, जिसके चलते उस दौर का नियम था कि जो भी सर्वोच्च ग़ुलाम होगा उसे शासक बना दिया जाएगा. ऐसे वो ग़ोरी की सल्तनत के शासक बने.
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क़ुतबुद्दीन ऐबक एकलौता मुस्लिम शासक था, जिसे दो बार ग़ुलाम बाज़ार में बेचा गया और उसने ही गुलाम वंश की स्थापना की. वो एक सशक्त शासक बनकर उभरा, जिसने भारत में एक ऐसी मुस्लिम सल्तनत की नींव डाली, जिसमें 600 सालों यानी 1857 के ग़दर तक कई मुस्लिम शासकों ने शासन किया. BBC की रिपोर्ट के अनुसार, JNU के इतिहासकार प्रोफ़ेसर नज़फ़ हैदर का कहना है,
ग़ुलाम वंश के सभी बादशाहों को ग़ुलाम बादशाह नहीं, बल्कि तुर्क या ममलूक कहा जाता था. ऐबक को वास्तुकला में भी ख़ासा रुचि थी जिस वजह से उसने 1199 में क़ुतुब मीनार के साथ क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद की नींव भी रखी.
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ऐबक ने मोहम्मद ग़ोरी की सल्तनत को उन्हीं की विस्तार नीति से चलाया और 1193 में अजमेर के अलावा हिन्दू राज्य सरस्वती, समाना, क़हरान और हांसी पर अपनी विजय पताका फ़हराई. इसके बाद, कन्नौज के राजा जयचंद को चंदवार के युद्ध में हराकर दिल्ली को जीत लिया. फिर 10 से 12 महीनों के अंदर ही राजस्थान से गंगा-जमुना के संगम तक के इलाक़ों को भी हासिल कर लिया.
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आपको बता दें, अजमेर पर जीत हासिल करने के बाद ही ऐबक ने कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण कराया, जिसे ढाई-दिन का झोपड़ा कहा जाता है. ये उत्तर भारत में बनी पहली मस्जिद थी.