1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की बात हो, और महायोद्धा तात्या टोपे (Tatya Tope) का नाम ना आए, ऐसा कभी हो सकता है क्या? इस संग्राम में वो एक महत्वपूर्ण नेता थे, जिन्होने रानी लक्ष्मीबाई और नाना साहेब के साथ लड़ाई लड़ी थी. वो एक शूरवीर योद्धा थे, जिसके रणकौशल, शौर्य और पराक्रम ने अंग्रेज़ों के दांत खट्टे कर दिए थे. उन्होंने कभी अंग्रेज़ों के आगे हार नहीं मानी और उन्हें परास्त करते रहे. अंग्रेज़ों के मन में उनके प्रति डर इस क़दर पैदा हो गया था कि तात्या के लिए उन्होंने मौत की साज़िश रची और उनको धोखे से मार गिराया था. आज भी उनकी वीर गाथाएं कई लोगों को प्रेरित करती हैं. 

तात्या टोपे (Tatya Tope) नासिक के पास पटौदा जिले के येवला गांव में जन्मे थे. उनके पिता पाण्डुरंग त्र्यम्बक भट्ट पेशवा बाजीराव द्वितीय के गृह-विभाग के काम को देखा करते थे. वहीं, उनकी मां का नाम रुक्मिणी बाई था. तात्या का जन्म कुलकर्णी परिवार में हुआ था. उनका असली नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था. उनका ‘तात्या‘ मात्र उपनाम था. 

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Tatya Tope

चार साल में आ गए थे बिठूर 

तात्या टोपे (Tatya Tope) जब चार साल के थे, तभी उनके पिता उन्हें बिठूर ले आए थे. ऐसा इसलिए हुआ था, क्योंकि उनके पिता के स्वामी बाजीराव द्वितीय 1818 ई. में बसई के युद्ध में अंग्रेज़ों से हार गए थे, जिसकी वजह से उनका सामाज्य उनसे छिन गया था. इसके बाद उन्हें आठ लाख रुपये की सालाना पेंशन मंजूर की गई और उनकी राजधानी से उन्हें बहुत दूर हटाकर बिठूर, कानपुर में रखा गया. तात्या के पिता ने दो शादियां की थीं. उनकी पहली पत्नी रुक्मा देवी ने दो बच्चों रामचंद्र राव यानि तात्या टोपे और गंगाधर राव को जन्म दिया था. इसके अलावा उनकी एक सौतेली बहन और छह भाई भी थे. तात्या पहले ईस्ट इंडिया कंपनी में बंगाली आर्मी की तोपखाना रेजिमेंट में नौकरी करते थे. लेकिन उनके स्वाभिमानी स्वभाव के चलते वो पेशवा की नौकरी में वापस आ गए थे. 

कैसे पड़ा तात्या टोपे नाम?

तात्या काफ़ी शूरवीर थे, इसलिए उनके शौर्य से प्रभावित होकर पेशवा बाजीराव ने उन्हें बेहद महंगी टोपी दी थी. तात्या इस टोपी को बड़े चाव से पहनते थे. इसलिए लोग उन्हें तात्या टोपी या तात्या टोपे कहा जाने लगा था. ये भी कहा जाता है कि तोपखाने में नौकरी करने के चलते उन्हें टोपे कहा जाने लगा.

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1857 में अंग्रेज़ों के दांत किए थे खट्टे

1857 के विद्रोह की शुरुआत मेरठ से हुई थी, जिसकी लपटें धीरे-धीरे पूरे देश में फ़ैल गईं. इसमें रानी लक्ष्मीबाई, राव साहब, बहादुरशाह जफ़र आदि कई सेनानियों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया. इसमें तात्या भी शामिल थे. जब इस विद्रोह की चिंगारी कानपुर तक पहुंची, तो वहां के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित कर दिया. तात्या टोपे (Tatya Tope) को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया. इसके बाद ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक ने जब कानपुर पर आक्रमण किया, तब तात्या ने इसकी सुरक्षा करने में अपनी पूरी जान लगा दी. लेकिन 16 जुलाई को उनकी पराजय हुई और उन्हें कानपुर छोड़ना पड़ा. 

हालांकि, इसके बावजूद उनका हौसला डगमगाया नहीं और उन्होंने दोबारा सैन्य ताक़त जुटाकर बिठूर को अपना केंद्र बनाया. इसके बाद हैवलॉक ने बिठूर पर भी अचानक से आक्रमण कर दिया और फिर से उनकी सेना को पराजित कर दिया. फिर तात्या ने ग्वालियर कंटिजेंट रेजीमेंट को अपनी टीम में किया और ब्रिटिश हुकूमत पर हमला कर दिया. इस हमले से अंग्रेज़ों को अपनी नानी याद आ गईं. लेकिन 06 दिसंबर को ब्रिटिश सेना ने तात्या को फिर पराजित कर दिया. इसे बाद वो 22 मार्च को करीब 20,000 सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद को पहुंच गए. यहां अंग्रेज सेना हार गई. 

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तात्या को घेरने का प्रयास कर रही थी ब्रिटिश हुकूमत

विद्रोह में अंग्रेज़ों से लड़ते-लड़ते 18 जून को रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त कर ली थी. इसके बाद ग्वालियर पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया. तात्या ने अंग्रेज़ों पर हमला करने के लिए गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई. वो अपनी रणनीति से पीछे हट जाएं, इसलिए अंग्रेज़ों ने लोगों के परिवारवालों को क़ैद में डालना शुरू कर दिया. इसके साथ उन्हें पकड़ने के लिए छह अंग्रेज़ी सेनानी को लगा दिया. लेकिन तात्या अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ाकर 26 अक्टूबर 1858 को नर्मदा नदी पार करके दक्षिण में जा धमके. ये घटना उस दौरान कई अख़बारों की सुर्ख़ियों में रहीं. 

अंग्रेज़ों ने तात्या को छल करके पकड़ा

10 महीने तक तात्या अंग्रेज़ों को धूल चटाते रहे और उन्हें अपने पीछे कुत्ते-बिल्ली की तरह दौड़ाते रहे. सभी प्रयास करने के बाद अंग्रेज़ों ने उन्हें छल नीति से पकड़ने के बारे में सोचा. ग्वालियर के राजा के विरुद्ध अयशस्वी प्रयास करने वाले मानसिंह ने 7 अप्रैल 1859 को तात्या को परोणके वन में सोते हुए बंदी बना लिया. इसके बाद सैनिक न्यायालय ने तात्या पर अभियोग चलाकर 15 अप्रैल को फांसी पर चढ़ाने का निर्णय ले लिया. जिसके बाद इस वीर मराठा को 18 अप्रैल 1859 को फांसी पर चढ़ा दिया गया. 

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भारतीय विद्रोह में तात्या सबसे प्रखर मस्तिष्क के नेता थे.