अगर आपकी पैदाइश 90 के दशक या उसके पहले की है, तब आप ज़रूर मेरी इस बात से सहमत होंगे. जब भी मानव की शारीरिक ताकत की बात आती थी, बड़े-बुज़ुर्ग एक नाम का ज़िक्र ज़रूर करते थे. वो नाम ‘गामा पहलवान’ का हुआ करता था. हम तब इस नाम से इतने प्रभावित थे, बिना उस व्यक्ति को जाने ये मान बैठे थे कि ‘गामा पहलवान’ नाम का कोई व्यक्ति था, जिसके आगे कोई भी नहीं टिकता था. लोग बातचीत में इस नाम का इस्तेमाल मुहावरों की तरह करते थे.
कौन था गामा पहलवान?
22 मई, सन 1878 में अमृतसर में ग़ुलाम मोहम्मद का जन्म हुआ. करीबी लोग उन्हें ‘गामा’ कह कर पुकारते थे. गामा के वालिद देशी कुश्ती के खिलाड़ी थे. गामा ने शुरुआती दाव-पेंच अपने पिता से ही सीखे. एक बार जोधपुर के राजा ने कुश्ती का आयोजन करवाया था. उस दंगल मे 10 साल का गामा भी हिस्सा लेने पहुंचा था. नन्हें गामा पहलवान उस दंगल के विजेता घोषित हुए.
19 साल के होते-होते तक गामा का नाम भारत के कोने-कोने तक पुहंच चुका था. ऐसा कोई भी पहलवान नहीं, जो गामा के आगे टिकने में सक्षम था. बस गुजरांवाला का करीम बक्श सुल्तानी गामा के लिए एक चुनौती बना हुआ था.
एक मौके पर लाहौर में दोनों के बीच दंगल रखा गया, तीन घंटे तक चले उस कुश्ती का कोई परिणाम नहीं निकलe, और खेल बराबरी पर छूटा. इसके बाद गामा पहलवान को ‘अजय’ मान लिया गया.
विश्व विजेता-गामा पहलवान
1910 में लंदन में ‘चैंपियंस ऑफ़ चैंपियंस’ नाम से कुश्ती प्रतियोगिता आयोजित की गई थी. उस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने गामा पहलवान अपने भाई के साथ गए थे. उन दिनों पोलैंड के ‘स्तानिस्लौस ज्बयिशको’ विश्व विजेता पहलवान हुआ करते थे.
कम कद का होने की वजह से गामा पहलवान को प्रतियोगिता में हिस्सा लेने से रोक दिया गया. गुस्से में गामा पहलवान ने सभी प्रतियोगियों को खुला चैलेंज कर दिया. उस वक़्त के सभी नामी-गिरामी पहलवानों को गामा पहलवान ने मिनटों में चित कर दिया था.
इसके बाद अगली 10 सितम्बर, 1910 को जॉन बुल नाम की एक प्रतियोगिता हुई, इस बार भारत के गामा के सामने विश्व विजेता स्तानिस्लौस ज्बयिशको थे. गामा ने एक ही मिनट में पोलैंड के खलाड़ी को गिरा दिया, चित होने से बचने के लिए फिर अगले ढाई मिनट तक उन्होंने फ़र्श को छोड़ा ही नहीं. मैच बराबरी पर छूटा. एक सप्ताह बाद 17 सितंबर को फिर दोनों के बीच मैच रखा गया, लेकिन पोलैंड का खिलाड़ी आया ही नहीं. गामा विजेता घोषित हो गए. पत्रकारों ने जब ज्बयिशको से न आने की वजह पूछी तो उसने कहा, ‘ये आदमी मेरे बस का नहीं है.’
गामा की ग़रीबी
गामा की जवानी कुश्ती लड़ते हुए गुज़री और अपने बुढ़ापे में वो ग़रीबी से लड़ते रहे. कुश्ती का सबसे महान खिलाड़ी किसी और के रहम-ओ-करम पर पलने के लिए मजबूर था. बंटवारे के बाद गामा पहलवान पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन उनके लिए हिंदुस्तान के एक कुश्ती प्रेमी घनश्याम दास बिड़ला 300 रुपये महीने की पेंशन भेजते थे. बड़ौदा के राजा भी उनकी मदद के लिए आगे आए थे. पाकिस्तान सरकार को जब इसकी ख़बर पहुंची, तब वो भी नींद से जागी और गामा पहलवान के इलाज का भार उठाया. मई 1960 में लाहौर में उनकी मृत्यु हो गई. उनके जाने का बाद गामा की बस मिसालें दी गईं, कोई गामा बन नहीं पाया.