अल्लामा मोहम्मद इक़बाल… इतिहासकारों और पड़ोसी मुल्क़ वालों की माने तो इक़बाल ने उनके वतन के वजूद की नींव रखी थी. तथाकथित देशप्रेमियों को इस बात से आपत्ति होगी, लेकिन जानकारी के लिए याद रखें कि जिस ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ और ‘लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी’ को बचपन से हम जोश-ओ-ख़रोश से गाते आ रहे हैं वो इक़बाल के ही मगज की उपज है.

पाकिस्तान इनके विचारधारा की उपज है, लेकिन उस पाकिस्तान को अलग वतन की तरह वो कभी नहीं देखना चाहते थे. कुछ इतिहासकारों की माने तो वो उर्दू ज़ुबान का एक अलग क्षेत्र चाहते थे, लेकिन हिन्दोस्तां के अंदर. उनकी मृत्यु के कई बरसों बाद पाकिस्तान वजूद में आया, इक़बाल ने आख़िरी सांस, 21 अप्रैल, 1938 को ली थी. राम, शिवालय पर लिखी उनकी कविताएं इस बात का सुबूत हैं, कि वो दिल-ओ-जां से हिंदोस्तानी थे.

इक़बाल न सिर्फ़ वतनपरस्त थे, बल्कि एक दार्शनिक भी थे. इक़बाल को मुफ़्फकिर-ए-पाकिस्तान, शायर-ए-मशरीफ़ और हक़ीम-उल-उम्मत भी कहा जाता है.

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सोचने वाली बात है कि अगर पाकिस्तान इक़बाल की देन है तो हम, आप और यहां तक की हमारी भारतीय फ़ौज आज भी ‘सारे जहां से अच्छा की धुन’ पर परेड क्यों करती है?