मैं भी बहुत अजीब हूं इतना अजीब हूं कि बस

ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं

जॉन एलिया… अपने नाम के साथ ही एक अलग सा एहसास लिए हैं. जब भी ये नाम कहीं सुनाई देता है, या पढ़ने को मिलता है तो ऐसे एहसास होते हैं, जिन्हें लफ़्ज़ों में पिरोना ज़रा मुश्किल हो जाता है.

उर्दू, अरबी, फ़ारसी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, हेब्रू में महारत हासिल थी उन्हें. Wikipedia के अनुसार वो एक पाक़िस्तानी शायर थे, पर क्या शायरों का भी कोई वतन होता है?

14 दिसंबर 1931 यूपी के अमरोहा में जन्में जॉन घर में सबसे छोटे थे, शायद इसीलिए वो बेहद उद्दंड थे. शेरों को पढ़कर तो कुछ ऐसा ही लगता है.

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दिल से कॉमरेड होने के नाते, वतन का बंटवारा उन्हें रास ना आया. बेमन से बंटवारे की लकीर को अपने माथे की लकीर बनाकर वो पाक़िस्तान चले गए और आख़िरी सांसे भी वहीं लीं.

ख़ुद की तारीफ़ में ये शायर कहते हैं कि ‘मैं न तो जॉन हूं, न एलिया हूं. मैं कोई नहीं हूं.’

जॉन को कुछ लोग अवसाद ग्रसित कवि, Great Depression Poet भी कहते हैं. गज़लों में ये इश्क़, आशिक़ी, वस्ल और फिर बिछोह साफ़-साफ़ दिखाई देता है. पता नहीं कैसी ज़िन्दगी थी उस शायर की, पर आशिक़ों के जज़्बातों को बख़ूबी लफ़्ज़ दिया है उन्होंने. अवसाद था या नहीं पता नहीं, पर हम ख़ुशनसीब हैं कि उनकी गज़लें और नज़्में छापी गईं वरना हमारे दिल को जो सुकून उन्हें पढ़कर मिलता है वो कैसे मिलता?

पेश करते हैं जॉन एलिया की कुछ चुनिंदा नज़्में-

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