‘मेरा रंग दे बसंती चोला, माए रंग दे…’ गीत गाते हुए फांसी पर झूल गए थे. उम्र सिर्फ़ 23 साल. न घर वालों की चिंता और न अपनी. सपना सिर्फ़ एक, देश की आज़ादी.
भगत सिंह को 1931 में ब्रिटिश पुलिस ऑफ़िसर Saunders की हत्या के जुर्म में फांसी दे दी गई थी. इस फांसी के 86 साल बाद एक पाकिस्तानी वकील, इम्तियाज़ रशीद क़ुरेशी ने लाहौर हाई कोर्ट में उनकी बेगुनाही साबित करने का ज़िम्मा लिया है. इम्तियाज़ ने सोमवार को एक Petition दायर की है ताकि भगत सिंह के केस की दोबारा सुनवाई जल्द से जल्द की जाए.
इम्तियाज़, लाहौर में भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन चलाते हैं. पिछले साल फरवरी में पाकिस्तान के चीफ़ जस्टिस ने क़ुरेशी की Petition पर सुनवाई करने के लिए एक बड़ी बेंच गठित करने का आदेश दिया था, लेकिन इस मामले में अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है.
अपने Petition में इम्तियाज़ ने कहा है कि भगत सिंह अविभाजित भारत के स्वतंत्रता सेनानी थे. बहुत से पाक़िस्तानी उन्हें अपना हीरो मानते हैं.
पीटीआई से हुई बातचीत में इम्तियाज़ ने कहा,
‘न सिर्फ़ भारतीय, बल्कि पाक़िस्तानी भी उनका सम्मान करते हैं. उनकी बेगुनाही साबित करना एक राष्ट्रीय मुद्दा है.’
अपनी Petition में इम्तियाज़ ने भगत सिंह के मामले की दोबारा जांच की मांग की है और साथ ही उन्हें सम्मानित करने की गुज़ारिश की है. इसके साथ ही लाहौर के शादमान चौक पर उनकी प्रतिमा लगाने का प्रस्ताव भी रखा है. यहीं पर भगत सिंह को फांसी हुई थी.
भगत सिंह और उनके अन्य दो साथी, सुखदेव और राजगुरू को अंग्रेज़ी सरकार ने फांसी दे दी थी. जिसके बाद पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई थी.
इम्तियाज़ के अनुसार, भगत सिंह को एक झूठे केस के तहत फांसी दी गई थी. पहले उन्हें उम्रक़ैद हुई थी पर इस सज़ा को बदल दिया गया था.
2014 में कोर्ट के आदेश पर अनारकली पुलिस थाने की फ़ाइलें खंगालकर, इम्तियाज़ को Saunders मर्डर केस की एफ़आईआर दी गई थी. ये 1928 का दस्तावेज़ था. ऊर्दू में लिखी इस एफ़आईआर के अनुसार, Saunders को दो नक़ाबपोश बंदूकधारियों ने 17 दिसंबर, शाम के 4:30 बजे गोली मार दी.
आईपीसी के सेक्शन 302, 1201 और 109 के तहत केस दर्ज किया गया. लेकिन इस एफ़आईआर में कहीं भी भगत सिंह का ज़िक्र नहीं है.
इम्तियाज़ ने कहा,
‘मैं भगत सिंह की बेगुनाही साबित कर के रहूंगा.’
अन्याय तो हुआ ही था, वरना फांसी समय से पहले क्यों दी जाती. भगत सिंह ही नहीं, और भी कई शहीदों को अंग्रेज़ों ने यूं ही मौत की सज़ा दे दी थी. क्रांतिकारियों के लिए इंसाफ़ नाम की कोई चीज़ थी ही नहीं. शहीदों की शहादत का ऐसा सम्मान हमने आज पहली बार देखा है.