कल बहुत दिनों बाद स्टेशनरी दुकान पर गई. दफ़्तर से लौटते वक़्त न जाने क्यों इच्छा हुई कि एक कॉपी और एक कलम ख़रीदूं और रख लूं उन्हें अपने पास. कभी-कभी तो ख़त लिख लेती हूं, पर वो भी कभी-कभी ही, रोज़ नहीं. महीने भर में एक लिख डाला तो बहुत है, वक़्त नहीं मिलता लिखने का. पेशा तो लिखना ही है, लेकिन असल में वो टाइप करना ही तो है. लिखना तो न जाने कहां छूट गया है.

आज भी याद है, कितनी जल्दी थी मुझे 5वीं कक्षा तक पहुंचने की. क्योंकि 5वीं के बच्चे कलम से लिखते थे. उस वक़्त कलम से लिखना यानि की बड़े हो जाने की निशानी. पेंसिल बच्चों की चीज़ समझी जाती थी. आज सोचकर हंसी आती है. आज पेंसिल और कलम दोनों की ही एहमियत समझ आती है.

Word Press

कितने ही किस्म के कलम होते थे. पापा की बेहद ख़ूबसूरत निब वाली फ़ाउंटेन पेन पर मेरी निगाह रहती थी. मौका पाते ही उससे लिखती थी. पर हाथ काफ़ी गंदे होते थे स्याही से, ठीक से इस्तेमाल करना नहीं आता था. पापा ने ही सिखाया था फ़ाउंटेन में स्याही डालना, उसे सही से पकड़ना.

सबसे पहले जो कलम पापा ने दी थी वो थी रेनॉल्ड्स 045, ब्लैक. और भी कई कलम आये ज़िन्दगी में. Cello Pinpoint, Add Gel, Linc Ocean Gel.

Bakier

Maths के लिए वैसे कलम जिसमें ज़्यादा रीफ़िल हो और होमवर्क या Assignment के लिए Gel Pen का इस्तेमाल करते थे.

Happy Students

Assignment के लिए हम Glitter Pen भी इस्तेमाल करते थे. फिर Coloured Pen से भी सरोकार हुआ.

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फिर हमारी ज़िन्दगी में आई एक क्रांतिकारी कलम, Flair की Writometer. 20 रुपये की कलम लेकिन ख़त्म होने में अरसा बीत जाता था. महीनों चल जाती थी एक कलम. उसकी रीफ़िल आती थी 10 रुपये की, सबसे कम ख़रीदी गई रीफ़िल में आयेगा इसका नाम.

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किसी को तोहफ़े में हम Parker देते थे. अमिताभ बच्चन और जीनिलया थे उसके विज्ञापन में, याद है? महंगी आती थी, तो 1 ही होती थी अपने पास. वो भी गिफ़्टेड. ऐसे Pens तोहफ़े के रूप में देने के ही काम आते थे.

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एक और तरह की कलम थी, लकड़ी की. काफ़ी सुंदर लगती थी दिखने में. नक्काशी होती थी उस कलम में. मेले में मिलती थी. वो अकसर चलती नहीं थी, मतलब उसमें रीफ़िल होते हुए भी. पर वो भी हमारे पास होती थी, इतनी अलग जो दिखती थी.

फिर आई ज़िन्दगी में लिखो-फ़ेंको. पतली निब और रीफ़िल का झंझट भी नहीं. शायद ही कोई छात्र होगा जिसने इस कलम का इस्तेमाल न किया हो. लिखावट भी अच्छी बन जाती थी. किफ़ायती भी थी, सिर्फ़ 3 रुपये की आती थी.

The Citizen

Pen के ज़िन्दगी में आने के साथ ही Pen का लिखा मिटाने वाली रबर भी ज़िन्दगी में आई थी. ये बात अलग है कि उस रबर से पेंसिल का लिखा भी नहीं मिटता था.

आज यूं ही वो सारे न बोलने वाले पर हमेशा साथ देने वाले यार(Pen) याद आ गये. अच्छा दौर था वो. Pen के बहाने ही कितनी यारियां हो जाया करती थी. क्लास में ऐसे लोग भी होते थे जिनके पास कभी Pen नहीं होता था, या फिर वो बहाने से अपने Crush से Pen मांगते थे. Best Friends एक जैसे Pen ख़रीदते थे.

फिर हम पहचान के लिए Pen के Caps बदलकर लगाते थे. कई यादें हैं Pens से जुड़ी हुई. आपकी भी होंगी ही, तो अंगूठे को ज़रा तकलीफ़ दो और कमेंट में साझा करो Pen से जुड़ी यादें.

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