ये पढ़ने में अविश्वसनीय लग सकता है लेकिन ये एक अलवर में रहने वाली महिला, ऊषा की सच्ची कहानी है.
लोगों का मैला ढोने से लेकर आज एक सफ़ल फ़िल्म निर्माता तक ऊषा की ज़िंदगी एक मिसाल ही नहीं है, बल्कि ये भी सिद्ध करती है कि क़िस्मत बदलने में वक़्त नहीं लगता.
एक निर्माता के रूप में उनकी पहली फ़िल्म ‘मधुबनी-द स्टेशन ऑफ कलर्स’ 37 मिनट का एक Docu-Drama है जो मिथिला पेंटिंग के माध्यम से बिहार में मधुबनी रेलवे स्टेशन के परिवर्तन को दिखाती है. ये फ़िल्म शिमला के पांचवें अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में भी प्रदर्शित की गई थी.
ऊषा, सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक को अपने जीवन में आए इतने बड़े परिवर्तन का श्रेय देती हैं. वे उन्हें ‘गांधी’ कह कर सम्बोधित करती हैं क्योंकि उन्होंने न केवल ऊषा को मुख्यधारा में लाया बल्कि उन अन्य महिलाओं की भी मदद की जो ऊषा की ही तरह लोगों का मैला ढोती थीं.
पाठक ने ऊषा और अन्य महिलाओं को अलवर में अपने सिर पर मैला ढोते हुए देखा था और उनसे पूछा की उनसे पूछा कि क्या वो कोई और काम करने को तैयार हैं. पाठक की इस बात ने ऊषा को हैरान कर दिया और ऊषा ने उन्हें बताया कि वो ये काम मज़बूरी में करती हैं वरना ऐसे काम करना किसको पसंद है.
बाद में ऊषा और अन्य महिलाओं ने एक संस्थान ‘नई दिशा’ खोली. उन्होंने कुछ बुनियादी शिक्षा ली और आचार, पापड़, अगरबत्ती, जूट का थैला और सिलाई-कढ़ाई करना शुरू कर दिया.
हालांकि, इन सामानों की बिक्री करना सबसे बड़ी चुनौती थी क्योंकि ऊषा और अन्य महिलाएं समाज की नज़र में एक ऐसे वर्ग से आती थी जिन से हाथ मिलाना भी उनके लिए पाप है.
पर वो कहते हैं न जहां चाह है वहां राह है.
एक सुलभ अंतर्राष्ट्रीय नामक संस्थान ने उनसे उनके सामान खरीदे और ये ऊषा की ज़िंदगी में एक महत्वपूर्ण मोड़ था. इसके बाद, ऊषा ने सुलभ अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक सेवा संगठन (SISSO) में शामिल हो गईं. काम के प्रति उनकी मेहनत और लगन देख कर उन्हें बाद में संस्थान का अध्यक्ष भी बना दिया गया.
उषा को प्रधानमंत्री मोदी की तरफ़ से ‘सफ़ाईगिरी अवॉर्ड’ भी मिला था. वो ये अवॉर्ड पाने वाली इंसान थीं.